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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ सावद्य कर्मों का सेवन करके पाप का सञ्चय करते हैं। वे विषयभोग में अत्यन्त आसक्त तथा दाम्भिक (दम्भ - ढोंग करने वाले) होते हैं । इस कारण ये न तो इसी लोक के होते हैं और न परलोक के ही होते हैं किन्तु मध्य में ही कामभोग में आसक्त होकर कष्ट पाते हैं । ये जो ईश्वर या आत्मा को जगत् का कर्त्ता मानते हैं वह सर्वथा मिथ्या है क्योंकि - वह ईश्वर अपनी इच्छा से प्राणियों को क्रिया में प्रवृत्त करता है अथवा किसी दूसरे की प्रेरणा से करता है ? यदि वह अपनी इच्छा से प्राणियों को क्रिया में प्रवृत्त करता है तो प्राणी अपनी इच्छा से ही क्रिया में प्रवृत्त होते हैं यही क्यों न मान लिया जाय ? ईश्वर प्राणियों को क्रिया में प्रवृत्त करता है यह क्यों माना जावे ? यदि वह ईश्वर किसी दूसरे की प्रेरणा से प्राणियों को क्रिया में प्रवृत्त करता है तो जिसकी प्रेरणा से वह प्राणियों को क्रिया में प्रवृत्त करता है उसकी भी प्रेरणा करने वाला कोई तीसरा होना चाहिये और उस तीसरे का चौथा और चौथे का पाँचवाँ इस प्रकार इस पक्ष में अनवस्था दोष आता है । "अप्रामाणिकानन्त पदार्थ परिकल्पनया विश्रान्त्यभावो अनवस्था" - अर्थात् - अप्रामाणिक प्रमाण बिना आगे से आगे पदार्थों की कल्पना करते जाने से कहीं पर भी विश्रान्ति समाप्ति न होना अनवस्था दोष कहलाता है । अतः प्राणिवर्ग ईश्वर की प्रेरणा से क्रिया में प्रवृत्त होते हैं यह पक्ष ठीक नहीं हैं । - तथा वह ईश्वर सराग है अथवा वीतराग है ? यदि सराग है तो वह साधारण जीव समानं ही सृष्टि का कर्त्ता नहीं हो सकता है और यदि वीतराग है तो वह किसी को नरक के योग्य पाप क्रिया में और किसी को स्वर्ग तथा मोक्ष के योग्य शुभ क्रिया में क्यों प्रवृत्त करता है ? यदि कहो कि प्राणिवर्ग अपने पूर्वकृत शुभ और अशुभ कर्म के उदय से ही शुभ तथा अशुभ क्रिया में प्रवृत्त होते हैं ईश्वर तो मात्र है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वकृत शुभ और अशुभ कर्मों का उदय भी ईश्वर के ही अधीन है अत: वह प्राणियों की शुभ और अशुभ प्रवृत्ति की जिम्मेदारी से नहीं बच सकता है । यदि यह मान लें कि प्राणी अपने पूर्वकृत कर्म के उदय से क्रिया में प्रवृत्त होते हैं तो यह भी मानना पड़ेगा कि - प्राणी जिस पूर्वकृत कर्म के उदय से क्रिया में प्रवृत्त होते हैं वह पूर्वकृत कर्म भी अपने पूर्वकृत कर्म के उदय से ही हुआ था तथा वह भी अपने पूर्वकृत कर्म के उदय से हुआ था इस प्रकार पूर्वकृत कर्म की परम्परा अनादि सिद्ध होती है। इस प्रकार ईश्वर मानने पर भी जब पूर्वकृत कर्म की परम्परा अनादि सिद्ध होती है तथा वही प्राणी की क्रिया में प्रवृत्ति का कारण भी ठहरती है तब फिर निरर्थक ईश्वर मानने की क्या आवश्यकता है ? जिसके सम्बन्ध से जिसकी उत्पत्ति होती है वही उसका कारण माना जाता है दूसरा नहीं माना जाता । मनुष्य का घाव शस्त्र और औषधि के प्रयोग से अच्छा होता है इसलिए शस्त्र और औषधि ही घाव भरने के कारण माने जाते हैं परन्तु उस घाव के साथ जिसका कोई सम्बन्ध नहीं है उस ठूंठ (सूखा हुआ वृक्ष जो पत्ते आदि से रहित है) को घाव भरने का कारण नहीं माना जाता अतः पूर्वकृत कर्म के उदय से ही प्राणियों की शुभाशुभ क्रिया में प्रवृत्ति सिद्ध होने पर उसके लिये ईश्वर मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । ईश्वरवादी जो यह कहते हैं कि २४ Jain Education International - For Personal & Private Use Only *************** www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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