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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ यह किस प्रकार उत्पन्न हुआ ? यह सांख्यवादी को सोचना चाहिये तथा यह बिचारा आत्मा तो पाप पुण्य कुछ करता ही नहीं फिर इसे दुःख सुख क्यों भोगने पड़ते हैं ? प्रकृति ने पाप पुण्य किये हैं इसलिए उचित तो यह है कि उनका फल प्रकृति ही भोगे । प्रकृति के पाप पुण्य का फल यदि पुरुष भोगता है तो देवदत्त के पाप पुण्य का फल यज्ञदत्त क्यों नहीं भोगता है ? अतः दूसरे के कर्म का फल दूसरा भोगे यह कदापि सम्भव नहीं है तथा केवल जड़ से विश्व की उत्पत्ति मानना भी असंगत है। इसी तरह लोकायतिकों (नास्तिकों) ने जो विश्व का कर्ता पाँच महाभूतों को माना है यह भी ठीक नहीं है. क्योंकि पाँच महाभूत जड़ हैं, चेतन नहीं हैं। फिर वे जगत् के कर्ता कैसे हो सकते हैं ? पदि कहो कि-शरीर के आकार में परिणत पाँच महाभूत चेतन हैं तो यह भी असंगत हैं, क्योंकि इनका अधिष्ठाता, जब तक कोई चेतन पदार्थ न माना जाय तब तक शरीर के आकार में इनका परिणाम होना ही असम्भव है। बिना कारण परिणाम नहीं हो सकता है अतः शरीर के आकार में पाँच भूतों के परिणाम का कारण आत्मा को मानना ही युक्तियुक्त है । अतः पूर्वोक्त सांख्य तथा नास्तिक दोनों के मत युक्तिरहित हैं । यद्यपि सांख्य और नास्तिकों का सिद्धान्त मानने योग्य नहीं है तथापि ये लोग अपने मतों को सत्य समझते हुए दूसरों को भी अपने मत का उपदेश देते हैं। इनके शिष्य इनके धर्म को सत्य मान कर अपने को कृतार्थ समझते हैं और इनके भोगार्थ नाना प्रकार की विषय भोग की सामग्री इन्हें अर्पण करते हैं। विषय भोग की सामग्री को पाकर ये लोग सांसारिक सुख भोग में इस प्रकार आसक्त हो जाते हैं जैसे महान् कीचड़ में हाथी फंस जाता है । ये लोग इस लोक से भी भ्रष्ट हो जाते हैं और परलोक से भी भ्रष्ट हो जाते हैं। ये न तो स्वयं संसार सागर को पार कर सकते हैं और न दूसरों को पार करवा सकते हैं किन्तु विषय भोगरूपी कीचड़ में फंसकर ये सदा संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं । यह दूसरे पुरुष का वृत्तान्त है। इसके पश्चात् अब तीसरे पुरुष का वर्णन किया जाता है ।। १०॥ विवेचन - पाञ्चमहाभूतिक की मान्यता है कि सारा संसार तथा संसार की सारी क्रियाएं, जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और नाश आदि पांच महाभूतों के ही कारण है। ये महाभूत अनादि, अनन्त, अकृत, अनिर्मित, अकृत्रिम, अप्रेरित और स्वतन्त्र हैं। इनको काल, ईश्वर, आत्मा आदि कोई भी प्रेरित नहीं करता है। किन्तु ये स्वयं समस्त क्रियाएँ करते हैं। इसलिये क्रिया, अक्रिया, पुण्य पाप, स्वर्ग, नरक, आत्मा परमात्मा आदि वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है। यह लोकायतिकों (नास्तिकों) का मत है। ___सांख्य मत के अनुसार पांच महाभूतों के अतिरिक्त छठा आत्मा भी है परन्तु वह निष्क्रिय है, अकर्ता है, कोई क्रिया नहीं करता है इसलिये अच्छा या बुरा फल उसे नहीं मिलता है। अतः दोनों ही प्रकार के पांच महाभूतवादियों के मतानुसार हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील सेवन आदि में कोई दोष नहीं है। ऐसा मानकर वे निःसंकोच स्वयं सावध कार्यों में एवं काम भोगों में प्रवृत्त होते रहते हैं। फिर उन्होंने जिन राजा-महाराजा आदि धर्म श्रद्धालुओं को पक्के भगत बनाए हैं वे भी विविध प्रकार से उनकी पूजा प्रतिष्ठा करके उनके लिये विषय भोगों की सामग्री जुटाते रहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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