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अध्ययन १
संसार के मूल कारण हैं इन तीन पदार्थों की साम्य अवस्था को प्रकृति कहते हैं। वह प्रकृति ही समस्त विश्व की आत्मा है और वही सब कार्यों का सम्पादन करती है। यद्यपि पुरुष या जीव नामक एक चेतन पदार्थ भी अवश्य है तथापि वह आकाशवत् व्यापक होने के कारण क्रिया रहित है। वह प्रकृति के द्वारा किये हुए कर्मों का फल भोगता है और बुद्धि के द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों का प्रकाश करता है । इन दो कार्यों से भिन्न कोई कार्य वह पुरुष या जीव नहीं करता है। जिस बुद्धि के द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों को वह पुरुष या जीव प्रकाशित करता है वह बुद्धि भी प्रकृति से भिन्न नहीं किन्तु उसी का कार्य है अतएव वह त्रिगुणात्मिका है । अर्थात् वह बुद्धि भी तीन सूतों से बनी हुई रस्सी के समान सत्त्व, रज
और तम इन तीन गुणों से ही बनी हुई है । सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों का सदा उपचय और अपचय होता रहता है, इसलिए ये तीनों गुण कभी स्थिर नहीं रहते। जब सत्त्व गुण की वृद्धि होती है तब मनुष्य शुभ कृत्य करता है और जब रजोगुण की वृद्धि होती है तब पाप और पुण्य दोनों से मिश्रित कार्य किये जाते हैं एवं तमोगुण के उपचय होने पर हिंसा, झूठ, चोरी आदि एकान्त पापमय कार्य किए जाते हैं। इस प्रकार जगत् के समस्त कार्य सत्त्व, रज, तम इन तीन गुणों के उपचय और अपचय के द्वारा ही किये जाते हैं निष्क्रिय आत्मा के द्वारा नहीं । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश रूप पाँच महाभूत, सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के द्वारा ही उत्पन्न हैं अतः प्रकृति ही सबकी अधिष्ठात्री
और आत्मा है । प्रकृति से पदार्थों की उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार समझना चाहिये-सत्त्व, रज और तम इन तीन पदार्थों की साम्य अवस्था को प्रकृति कहते हैं उस प्रकृति से बुद्धि तत्त्व उत्पन्न होता है और उस बुद्धि तत्त्व से अहङ्कार की उत्पत्ति होती है, अहङ्कार से रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द इन पाँच तन्मात्राओं (सूक्ष्मभूतों) की उत्पत्ति होती है, उक्त पाँच तन्मात्राओं से पृथ्वी आदि पाँच महाभूत और ज्ञानेद्रिय तथा कर्मेन्द्रिय और ग्यारहवाँ मन उत्पन्न होता है। ये सब मिलकर २४ पदार्थ होते हैं। ये ही समस्त विश्व के परिचालक हैं। यद्यपि पच्चीसवाँ पुरुष भी एक पदार्थ है तथापि वह भोग और बुद्धि से गृहीत पदार्थ के प्रकाश करने के सिवाय और कुछ नहीं करता है। अतः प्रकृति से समस्त कार्य होते हैं। यह सांख्यवादी का सिद्धान्त हैं। इनके मत में पुण्य पाप आदि सभी क्रियायें प्रकृति करती है इसलिए भारी से भारी पाप करने पर भी आत्मा को उसका लेप नहीं होता है किन्तु वह निर्मल बना रहता है। एकेन्द्रिय प्राणियों की तो बात ही क्या है ? यदि पंचेन्द्रिय प्राणी को भी कोई खरीदे, घात करे, उसका मांस पकावे, तो भी उसका आत्मा पाप से अलिप्त ही रहता है। यह संक्षेपतः सांख्यमत कहा गया है ।
वस्तुतः विचारवान् पुरुष की दृष्टि में यह मत बिल्कुल निःसार और युक्तिरहित है क्योंकि सांख्यवादी, पुरुष को चेतन और प्रकृति को अचेतन तथा नित्य कहता है, ऐसी दशा में अचेतन और नित्य प्रकृति इस विश्व को किस प्रकार उत्पन्न कर सकती है ? क्योंकि वह ज्ञानरहित जड़ है तथा जो वस्तु असत् है (है ही नहीं) वह कभी नहीं होती और जो सत् है उसका अभाव नहीं होता यह भी सांख्य मानता है अतः जिस समय प्रकृति और पुरुष दो ही थे उस समय यह विश्व तो था ही नहीं फिर
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