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________________ १८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ एवमेव ते अणारिया विप्पडिवण्णा तं सहहमाणा, तं पत्तियमाणा जाव इति ते णो हव्वाए, णो पाराए, अंतरा काम-भोगेसु विसण्णा । दोच्चे पुरिसजाए पंच महब्भूइए त्ति आहिए ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - पंचमहब्भूइए - पंच महाभूतिक, णिरवसेस - निरवशेष-शेष सारा वर्णन पूर्व सूत्रोक्तानुसार जानना, भूतसमवायं - भूत समवाय-भूत समूह को, महब्भूए - महाभूत, आगासे - आकाश, अणिम्मिया - अनिर्मित, अणिम्माविया - अनिर्मापित-दूसरों के द्वारा भी निर्मित नहीं है, कित्तिमा - कृत्रिम, अणिहणा - अनिधन-नाश रहित, अवंझा - अवन्ध्य, सतंता - स्वतन्त्र, सासया शाश्वत, आयछट्ठा - छठी आत्मा को, सओ - सत्, मुहं- मुख्य, करणयाए - कारण, णत्थित्थ - "इसमें नहीं है, विप्पडिवण्णा - विपरीत विचार वाले । भावार्थ - प्रथम पुरुष के वर्णन के पश्चात् दूसरे पुरुष का वर्णन किया जाता है । दूसरा पुरुष पाश्चमहाभूतिक कहलाता है। यह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पांच महाभूतों से ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और नाश मान कर दूसरे पदार्थों को स्वीकार नहीं करता है। संसार की समस्त क्रियायें इन पांच महाभूतों के द्वारा ही की जाती है इसलिए पञ्चमहाभूतों से भिन्न कोई दूसरा पदार्थ नहीं है यह पाश्चमहाभूतिकों की मान्यता है। यद्यपि सांख्यवादी पूर्वोक्त पांच महाभूत तथा छठी आत्मा को भी मानता है तथापि वह भी पाञ्चमहाभूतिक से भिन्न नहीं है क्योंकि वह आत्मा को निष्क्रिय मानकर पाँच महाभूतों को उत्पन्न करने वाली प्रकृति को ही समस्त कार्यों का कर्ता मानता है। अतः आत्मा को स्वीकार न करने वाले नास्तिक और आत्मा को क्रिया रहित मानने वाले सांख्यवादी दोनों ही. पाञ्चमहाभूतिक समझने योग्य हैं। नास्तिक कहते हैं कि - पृथ्वी आदि पांच महाभूत सदा विद्यमान रहते हैं इनका नाश कभी नहीं होता है तथा ये सबसे बड़े होने के कारण महाभूत कहलाते हैं। आना, जाना, उठना, बैठना, सोना, जागना आदि समस्त क्रियायें इनके द्वारा ही की जाती हैं। किसी दूसरे काल, ईश्वर अथवा आत्मा आदि के द्वारा नहीं, क्योंकि काल, ईश्वर तथा आत्मा आदि पदार्थ मिथ्या हैं इनकी कल्पना करना व्यर्थ है एवं स्वर्ग नरक आदि अप्रत्यक्ष पदार्थों की कल्पना भी मिथ्या है। वस्तुतः इसी जगह जो उत्तम सुख भोगा जाता है वह स्वर्ग है तथा भयंकर रोग शोक आदि पीड़ायें भोगना नरक है इनसे भिन्न स्वर्ग या नरक कोई लोक विशेष नहीं है अतः स्वर्ग लोक की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की तपस्याओं के अनुष्ठान से शरीर को क्लेश देना तथा नरक के भय से इस लोक के सुख को त्याग करना अज्ञान है । शरीर में जो चैतन्य अनुभव किया जाता है वह शरीर के रूप में परिणत पाँच महाभूतों का ही गुण है किसी अप्रत्यक्ष आत्मा का नहीं । शरीर के नाश होने पर उस चैतन्य का भी नाश हो जाता है अतः नरक या तिर्यञ्च योनि में जन्म लेकर कष्ट भोगने का भय करना अज्ञान है, यह पंचमहाभूतवादी नास्तिकों का मन्तव्य है। अब सांख्यमत बताया जाता है - सांख्यवादी कहता है कि-सत्त्व, रज और तम ये तीन पदार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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