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________________ अध्ययन १ विषयभोग रूपी कीचड़ में फंस जाता है । उस समय गृहस्थाश्रम और साधु जीवन दोनों से भ्रष्ट हो जाने से वह अपना कल्याण करने में असमर्थ हो जाता है। जब स्वयं का कल्याण नहीं कर सकता है तो दूसरे का कल्याण कर ही कैसे सकता है अर्थात् नहीं कर सकता है। अहावरे दोच्चे पुरिसजाए पंच- महब्भूइए त्ति आहिज्जइ । इह खलु पाईणं वा ६ संतेगइया मणुस्सा भवंति अणुपुव्वेणं लोयं उववण्णा, तंजा - आरिया वेगे, अणारिया वेगे एवं जाव दुखवा वेगे । तेसिं च णं महं एगे राया भवइ महया एवं चेव जिरवसेसं जाव सेणावइ पुत्ता । सिं चणं एगइए सड्डी भवइ कामं तं समणा य माहणा य पहारिंसु गमणाए । तत्थ अण्णयरेणं धम्मेणं पण्णतारो-वयं इमेणं धम्मेणं पण्णवइस्सामो, से एवमायाणह भयंतारो जहा मए एस धम्मे सुअक्खाए सुपण्णत्ते भवइ । • इह खलु पंचमहब्भूया, जेहिं णो विज्जइ किरिया त्ति वा अकिरिया त्ति वा, सुक्कडे ति वा, दुक्कडे ति वा, कल्लाणे ति वा, पावए ति वा, साहुति वा, असाहु ति वा, सिद्धि त्ति वा असिद्धि त्ति वा, णिरए त्ति वा अणिरए त्ति वा । अवि अंतसो - माय-मवि । तण १७ तं च पिद्देसेणं पुढो भूत- समवायं जाणेज्जा । तं जहा पुढवी एगे महभूए, आऊ दुच्चे महब्भूए, तेऊ तच्चे महब्भूए, वाऊ चटत्थे महब्भूए, आगासे पंचमे महब्भूएं । इच्वेए पंच- महब्भूया, अणिम्मिया, अणिम्माविया अकडा, जो कित्तिमा, णो कडगा, अणाइया, अणिहणा, अवंझा, अपुरोहिया, सतंता, सासया । आयछट्ठा पुण एगे एवमाहु-सओ णत्थि विणासो, असओ णत्थि संभवो । Jain Education International एयावता व जीवकाए, एयावता व अत्थिकाए एयावता व सव्व लोए; एवं मुहं लोगस्स करणयाए; अवि अंतसो तण - माय-मवि । .से किणं, किणावेमाणे, हणं, घायमाणे, पयं, पयावेमाणे, अवि अंतसो पुरिसमवि कीणित्ता, घायइत्ता, एत्थं पि जाणाहि णत्थित्थ दोसो । ते णो एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा - किरिया इ वा जाव अणिरए इ वा । एवं ते विरूवरूवेहिं कम्म-समारंभेहिं विरूव-नवाई काम-१ - भोगाई समारंभंति भोयणाए । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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