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________________ १६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ *********************************************************** 1 किसी प्रकार विषय भोग की प्राप्ति को ही पुरुष का परम कर्त्तव्य बताते हैं । विषय प्रेमी जीवों को. इनका मत बड़ा ही आनन्द दायक प्रतीत होता है क्योंकि इसमें पाप, परलोक और नरकादि का भय नहीं है और विषयभोग की इच्छानुसार आज्ञा है। वे विषयप्रेमी जीव इनके मत को बड़े आदर के साथ ग्रहण करके कहते हैं कि हे महानुभाव ! आपने मुझको बहुत उत्तम और आनन्ददायक धर्म का उपदेश किया है वस्तुतः यही धर्म सत्य है दूसरे सब धर्म धूतों ने अपने स्वार्थ साधन के लिये रचे हैं । आपने इस सत्य धर्म को सुना कर मेरा बड़ा ही उपकार किया है इसलिये हम आपको सब प्रकार की विषयभोग की सामग्री अर्पण करते हैं आप उन्हें स्वीकार करें । यह कह कर नास्तिकों के शिष्य उनको नानां प्रकार की विषयभोग की सामग्री अर्पण करते हैं और वे उस सामग्री को प्राप्त करके भोग भोगने में अत्यन्त प्रवृत्त हो जाते हैं । जिस समय ये नास्तिक शाक्य मत के अनुसार दीक्षा ग्रहण करते हैं उ समय तो वे प्रतिज्ञा करते हैं कि - "हम धन धान्य तथा स्त्री पुत्र आदि से रहित होकर दूसरे के द्वारा दिये हुए भिक्षान्न मात्र से अपना जीवन निर्वाह करते हुए सांसारिक भोगों के त्यागी बनेंगे" परन्तु इस प्रतिज्ञा को तोड़ कर ये भारी विषयलम्पट हो जाते हैं और दूसरों को भी अपने कुमन्तव्यों का उपदेश करके उनके जीवन को भी बिगाड़ देते हैं। इन लोकायतिकों का गृहस्थाश्रम भी नष्ट हो जाता है और परलोक भी बिगड़ जाता है। ये न इसी लोक के होते हैं और न परलोक के ही होते हैं किन्तु उभय भ्रष्ट होकर अपने जीवन को नष्ट करते हैं । ये लोग जब कि स्वयं अपने को संसार सागर से उद्धार नहीं कर सकते तब फिर ये अपने उपदेशों से दूसरे का कल्याण कर सकेंगे यह तो आशा ही करना व्यर्थ है । अतः पूर्वोक्त पुष्करिणी के कमल को निकालने की इच्छा से पुष्करिणी के घोर कीचड़ में फंसकर उससे अपने को उद्धार करने में असमर्थ प्रथम पुरुष इस शरीरात्मवादी को समझना चाहिये । I विवेचन - प्रथम पुरुष पुष्करिणी के पूर्व दिशा से आया वह श्वेत कमल को पाने के लिए पुष्करिणी में उतरा और बीच में ही कीचड़ में फंसकर दुःखी बनता है उसका पूर्व किनारा भी छूट गया और कमल तक भी पहुँचा नहीं, बीच में ही कीचड़ में फंसकर दुःखी बना, इस प्रथम पुरुष की तरह तज्जीवतच्छरीरवादी को भी समझना चाहिए इसकी मान्यता है कि जो शरीर दिखाई देता है वही आत्मा है । स्वर्ग, नरक मोक्ष आदि कुछ भी नहीं है जैसा कि उनका कथन है. - यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ॥ अर्थात् - जब तक जीवे तब तक सुख पूर्वक जीवे खूब माल ताल उड़ावे और मौजे मजा करें यदि घर में सामग्री न हो तो दूसरों से कर्ज लेकर खूब खावे पीवे और विषय-भोग सेवन करें क्योंकि जब शरीर को चिता में जला दिया जाता है तब आत्मा भी उसी के साथ जल कर भस्म हो जाता है परलोक में जाने वाला कोई आत्मा नहीं है। यह नास्तिक मोक्ष मार्ग को पाने के लिए आतुर होता है परन्तु साधु वेश धारण करके भी सांसारिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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