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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ करने वाले जो त्रस प्राणी है । वे जब उस मर्य्यादा से बाह्य देश में त्रस और स्थावर योनि में उत्पन्न होते हैं तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है । इस सूत्र के चौथे भाग का भाव यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्य्यादा के अन्दर रहने वाले जो स्थावर प्राणी हैं वे मरकर उस मर्य्यादा के अन्दर जब त्रसयोनि में उत्पन्न होते हैं तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है । इस सूत्र के पांचवें भाग का सार यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्य्यादा के अन्दर रहने वाले जो स्थावर प्राणी हैं वे मर कर जब उसी देश में रहने वाले स्थावर जीवों मे उत्पन्न होते हैं तब. उनको अनर्थदण्ड देना श्रावक वर्जित करता है । इस सूत्र के छठे भाग का तात्पर्य यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर रहने वाले जो स्थावर प्राणी हैं वे जब उस मर्य्यादा के अन्दर रहने वाले त्रस और स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है । इस सूत्र के सातवें भाग का अभिप्राय यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर रहने वाले त्रस और स्थावर प्राणी जब उसी मर्य्यादा के अन्दर रहने वाले त्रस प्राणियों में उत्पन्न होते हैं। तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है । इस सूत्र के आठवें भाग का भाव यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई देश मर्य्यादा से बाहर रहने वाले त्रस और स्थावर प्राणी जब उस मर्य्यादा के अन्दर रहने वाले स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं तब श्रावक उन्हें अनर्थ दंड देना वर्जित करता है । .२१० - इस सूत्र के नवम भाग का भाव यह है कि श्रावक वाले त्रस और स्थावर प्राणी जब मर्य्यादा से बाह्य देश में उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है । इसी प्रकार प्रथम भाग से लेकर नौ ही भाग की व्याख्या करनी चाहिए परन्तु जहाँ जहाँ त्रस प्राणियों का ग्रहण है वहां सर्वत्र व्रत ग्रहण के समय से लेकर मरण पर्य्यन्त उन प्राणियों को श्रावक दंड नहीं देता है यह तात्पर्य जानना चाहिये और जहाँ स्थावर का ग्रहण है वहाँ श्रावक के द्वारा उन्हें अनर्थ दंड वर्जित करना समझना चाहिए । शेष अक्षरों की योजना अपनी बुद्धि के अनुसार कर लेनी चाहिए । इस प्रकार बहुत दृष्टान्तों के द्वारा श्रावक के व्रत को सविषय होना सिद्ध करके अब भगवान् गौतम स्वामी उदक के प्रश्न को ही अत्यन्त असङ्गत बतलाते हैं भगवान् गौतम स्वामी 'उदक' से कहते हैं कि हे उदक! पहले व्यतीत हुए अनन्त काल में ऐसा कभी नहीं हुआ तथा अनागत अनन्त काल में ऐसा कभी नहीं होगा एवं वर्तमान काल में ऐसा नहीं हो सकता है कि सभी त्रस प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जायँ और सभी स्थावर शरीर में जन्म ग्रहण कर लें तथा ऐसा भी नहीं हुआ, न होगा और न Jain Education International के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर रहने त्रस और स्थावर रूप में उत्पन्न होते हैं तब For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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