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________________ अध्ययन ७ २११ कि सभी स्थावर प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जाये और सभी त्रस योनि में जन्म ग्रहण कर लें। यद्यपि कभी त्रस प्राणी स्थावर होते हैं और स्थावर प्राणी कभी त्रस होते हैं इस प्रकार इनका परस्पर संक्रमण होता अवश्य है परन्तु सब के सब प्रस, स्थावर हो जायें अथवा सभी स्थावर एक ही काल में त्रस हो जायें ऐसा कभी नहीं होता है। ऐसा त्रिकाल में भी संभव नहीं है कि एक प्रत्याख्यान करने वाले श्रावक को छोड़ कर बाकी के नारक, द्वीन्द्रियादि, तिर्यश्च तथा मनुष्य और देवताओं का सर्वथा अभाव हो जाय। उस दशा में श्रावक का प्रत्याख्यान निर्विषय हो सकता है यदि प्रत्याख्यानी श्रावक की जीवन दशा में ही सभी नारक आदि त्रस प्राणी उच्छिन्न हो जायं परन्तु पूर्वोक्त रीति से यह बात संभव नहीं है तथा स्थावर प्राणी अनन्त हैं अतः अनन्त होने के कारण असंख्येय त्रस प्राणियों में उनकी उत्पत्ति भी संभव नहीं है यह बात अति प्रसिद्ध है। इस प्रकार जब कि त्रस और स्थावर प्राणी सर्वथा उच्छिन्न नहीं होते तब आप अथवा दूसरे लोगों का यह कहना कि "इस जगत् में ऐसा एक भी पर्याय नहीं है जिनमें श्रावक का एक त्रस के विषय में भी दंड देना वर्जित किया जा सके" यह सर्वथा अयुक्त है।। ८०॥ ___भगवं च णं उदाहु आउसंतो उदगा ! जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासेइ मित्ति मण्णइ आगमित्ता णाणं आगमित्ता दंसणं आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोगपलिमंथत्ताए चिट्ठइ, जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिभासह मित्ति मण्णंति आगमित्ता णाणं आगमित्ता दंसणं आगमित्ता चरितं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोगविसुद्धीए चिट्ठइ, तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं अणाढायमाणे जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पहारेत्थ गमणाएं ॥ ... ____ भावार्थ - भगवान् गौतम स्वामी कहते हैं कि हे आयुष्मन् उदक ! जो पुरुष, साधुओं के साथ मैत्री रखता हुआ भी शास्त्रोक्त आचार पालन करने वाले श्रमण तथा उत्तम ब्रह्मचर्य से युक्त माहन की निन्दा करता है तथा सम्यग् ज्ञान दर्शन और चारित्र को प्राप्त करके कर्मों का विनाश करने के लिए प्रवृत्त है वह पुरुष लघुप्रकृति और पंडित न होता हुआ भी अपने को पंडित मानने वाला, सुगति स्वरूप परलोक तथा उसके कारण स्वरूप सत्संयम को अवश्य ही विनाश कर डालता है। परन्तु जो पुरुष, महासत्त्व सम्पन्न और समुद्र के समान गंभीर है तथा श्रमण माहन की निन्दा न करता हुआ उनमें मैत्री रखता है एवं सम्यग् ज्ञान दर्शन और चारित्र को स्वीकार करके कर्मों का क्षय करने के लिए प्रवृत्त है वह पुरुष निश्चय ही पर लोक की विशुद्धि के लिए समर्थ होता है। इस प्रकार कह कर भगवान् गौतम स्वामी ने, पर निन्दा का त्याग और यथार्थ वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन के द्वारा अपनी उद्धता का परिहार किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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