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________________ अध्ययन ७ २०९ तत्थ जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० ते तओ आउं विष्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० तेसु पच्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि जाव अयं वि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥ तत्व जे ते परेणं तसथावस. पाणा जेहिं समणो-वासगस्स आयाणसो आमरणंताए० ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते तेसु पच्चायंति, जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए अणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते जाव ते पाणावि जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥ तत्थ जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता ते तत्थ परेणं चेव जे तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० तेस पच्चायंति, जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि जाव अयं वि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥ भगवं च णं उदाहु ण एवं भूयं, ण एवं भव्वं, ण एवं भविस्सइ जण्णं तसा पाणा वोच्छिजिहिति थावरा पाणा भविस्संति, थावरा पाणा वि वोच्छिजिहिति तसा पाणा भविस्संति, अवोच्छिण्णेहिं तसथावरेहिं पाणेहिं जण्णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह-त्यि णं से केइ परियाए जाव णो णेयाउए भवइ ॥८०॥ भावार्थ - इस सूत्र के नौ भागों की इस प्रकार व्याख्या करनी चाहिए । श्रावक ने जितने देश की मर्यादा ग्रहण की है उतने देश के अन्दर जो त्रस प्राणी निवास करते हैं वे जब मर कर उसी देश में फिर स योनि में उत्पा होते हैं । तब वे श्रावक के प्रत्याख्यान के विषय होते हैं अतः श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना ठीक नहीं है यह इस सूत्र के पहले भाग का आशय है । इस सूत्र के दूसरे भाग का तात्पर्य यह है कि - श्रावक ने जितने देश की मर्यादा ग्रहण की है उतने देश के अन्दर रहने वाले त्रस प्राणी त्रस शरीर को छोड़ कर उसी क्षेत्र में जब स्थावर योनि में जन्म ग्रहण करते हैं तब श्रावक उनको अनर्थ दंड देना वर्जित करता है इस प्रकार उसका प्रत्याख्यान सविषयक होता है निर्विषयक नहीं होता । तीसरे भाग का भाव यह है कि - श्रावक ने जितने देश की मर्यादा ग्रहण की है उसके अन्दर निवास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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