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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
इसलिये श्रावक का प्रत्याख्यान सविषय है, निर्विषय नहीं है अतः आप लोग त्रस प्राणी के अभाव के कारण जो श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषय बतला रहे हैं यह न्यायसंगत नहीं है ।।
भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा-अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते ते तओ आउगं विप्पजहंति ते तओ भुज्जो सगमादाए सग्गइगामिणो भवंति, ते पाणा वि वुच्चंति जाव णो णेयाउए भवइ ॥
कठिन शब्दार्थ - धम्मिया - धार्मिक, धम्माणुया - धर्म की अनुज्ञा देने वाले, सग्गइगामिणो - सुगति में जाने वाले । ____ भावार्थ - भगवान् गौतम स्वामी कहते हैं कि - इस जगत् में बहुत से मनुष्य आरम्भ वर्जित परिग्रह रहित धर्माचरणशील और धर्म के अनुगामी होते हैं। वे मरण पर्य्यन्त सब प्रकार के परिग्रहों से निवृत्त रहते हुए काल के अवसर में मृत्यु को प्राप्त करके उत्तम गति को प्राप्त करते हैं। वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं। उन प्राणियों को श्रावक व्रत ग्रहण के दिन से लेकर मृत्युपर्यन्त दण्ड नहीं देता है इसलिये श्रावक का व्रत सविषय है, निर्विषय नहीं है।
भगवं च णें उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहाँ-अप्पेच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव एगच्चाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउगं विप्पजहंति, तओ भुग्जो सगमादाए सग्गइगामिणो भवंति, ते पाणा वि वुच्चंति जाव णो णेयाउए भवइ ॥
भावार्थ - भगवान् गौतम स्वामी ने कहा कि - इस जगत् में कोई ऐसे भी मनुष्य होते हैं जो अल्प इच्छा वाले अल्प आरम्भ करने वाले अल्प परिग्रह रखने वाले धार्मिक और धर्म की अनुज्ञा देने वाले होते हैं। वे किसी प्राणातिपात से विरत और किसी से अविरत एवं परिग्रह पर्य्यन्त सभी आस्रवों में किसी से विरत और किसी से अविरत होते हैं । उन्हें व्रत ग्रहण के दिन से लेकर मरण पर्य्यन्त दण्ड देने का श्रावक त्याग करता है । वे अपनी उस आयु का त्याग करते हैं और अपने पुण्य कर्म को लेकर सद्गति को प्राप्त करते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं अतः श्रावक के व्रत को निर्विषय बताना न्यायसङ्गत नहीं है ।
भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा-आरण्णिया आवसहिया
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