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________________ अध्ययन ७ २०५ www गामणियंतिया कण्हुई रहस्सिया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते भवइ, णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया पाणभूयजीवसत्तेहिं, अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विप्पडिवेदेति-अहं ण हंतव्यो अण्णे हंतव्वा, जाव कालमासे कालं किच्चा अण्णयराइं आसुरियाई किव्विसियाई जाव उववत्तारो भवंति, तओ विप्पमुच्चमाणा भुजो एलमुयत्ताए तमोरूवत्ताए पच्चायति ते पाणा वि वुच्चंति जाव णो णेयाउए भवइ। - कठिन शब्दार्थ - आसुरियाई - असुर सम्बन्धी, किदिवसियाई - किल्विषी में, विप्पमुच्चमाणामुक्त होते हुए, एलमुयत्ताए - बकरे की तरह गूंगा, तमोरूवत्ताए - तामसी । भावार्थ - भगवान् गौतम स्वामी कहते हैं कि - इस जगत् में कोई मनुष्य वन में निवास करते हैं और कन्द मूल फल आदि खाकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं और कोई झोंपड़ी बना कर निवास करते हैं तथा कोई ग्राम में निमन्त्रण पाकर अपना जीवन निर्वाह करते हैं । ये लोग अपने को मोक्ष का आराधक बतलाते हैं परन्तु ये मोक्ष के आराधक नहीं हैं ये अहिंसा का पालन करने वाले नहीं हैं । इन्हें जीव और अजीव का विवेक भी नहीं हैं । ये लोग कुछ सच्ची और कुछ झूठी बातों का उपदेश लोगों को दिया करते हैं। ये कहते हैं कि-"हम तो अवध्य है परन्तु दूसरे प्राणी अवध्य नहीं है हमें आज्ञा न देनी चाहिये परन्तु दूसरे प्राणियों को आज्ञा देनी चाहिये हमें दास आदि बनाकर नहीं रखना चाहिये परन्तु दूसरों को रखना चाहिये इत्यादि" । इस प्रकार उपदेश देने वाले ये लोग स्त्री भोग तथा सांसारिक दूसरे विषयों में भी अत्यन्त आसक्त रहते हैं। ये लोग अपनी आयु भर सांसारिक विषय भोगों को भोगकर मृत्यु को प्राप्त करके अपनी अज्ञान तपस्या के प्रभाव से अधम देवयोनि में उत्पन्न होते हैं । अथवा प्राणियों के घात का उपदेश देने के कारण ये लोग नित्यान्धकारयुक्त अति दुःखद नरकों में जाते हैं । ये लोग चाहे देवता हो या नारकी दोनों ही हालत में त्रसपने को नहीं छोड़ते हैं अतः श्रावक इनको न मार कर अपने व्रत को सफल करता है। यद्यपि इनको मारना द्रव्यरूप से सम्भव नहीं है तथापि भाव से इनको मारना सम्भव है अतः श्रावक का व्रत निर्विषय नहीं है। ये लोग स्वर्ग तथा नरक के भोग को समाप्त करके फिर इस लोक में अन्धे, बहरे और गूंगे होते हैं अथवा तिर्यञ्चों में जन्म ग्रहण करते हैं दोनों ही अवस्थाओं में ये त्रस ही कहलाते हैं इसलिये त्रस प्राणी को न मारने का व्रत जो श्रावक ने ग्रहण किया है उसके अनुसार ये श्रावकों के द्वारा अवध्य होते हैं अतः श्रावकों के व्रत को निर्विषय बताना मिथ्या है। भगवं च णं उदाहु संतेगइया पाणा दीहाउया जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए जाव दंडे णिक्खित्ते भवइ ते पुष्वामेव कालं करेंति करेत्ता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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