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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २. रह नहीं सकता है किन्तु वह स्थावरनाम कर्म के उदय से स्थावरकाय में भी जायगा और वह स्थावरकाय में जाकर उस प्रत्याख्यानी पुरुष के द्वारा घात करने योग्य होगा। फिर उसकी प्रतिज्ञा किस प्रकार अभङ्ग रह सकेगी ? एवं जिसने किसी खास जाति या किसी खास व्यक्ति को न मारने की प्रतिज्ञा की है जैसे कि- मैं ब्राह्मण को न मारूंगा, मैं शूकर को न मारूँगा । वह व्यक्ति यदि ब्राह्मण शरीर और शूकर शरीर को त्याग कर अन्य जाति के शरीर में आये हुए उन प्राणियों का घात करता है। तो तुम्हारे सिद्धान्त के अनुसार उसकी प्रतिज्ञा का भंग क्यों नहीं माना जावेगा ? अतः जो लोग त्रस पद के उत्तर 'भूत' शब्द का प्रयोग करके प्रत्याख्यान कराते हैं वे निरर्थक 'भूत' शब्द का प्रयोग करके पुनरुक्ति दोष का सेवन करते हैं तथा उनसे जब कोई यह बात समझाता है तब वे उसके ऊपर नाराज होते हैं और उनके हृदय में ताप उत्पन्न होता है। इसलिये वे निरर्थक और 'अनुतापिनी' भाषा बोलने वाले हैं जो श्रमण निर्ग्रथों के बोलने योग्य नहीं है तथा जो श्रमण निग्रंथ प्रत्याख्यान वाक्य में भूत शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं उनके ऊपर वे व्यर्थ दोषारोपण का प्रयत्न करते हैं और इस प्रकार प्रत्याख्यान ग्रहण करने वाले श्रावकों के ऊपर भी वे मिथ्या कलंक चढ़ाते हैं। अतः वे लोग वस्तुतः साधु कहलाने योग्य नहीं हैं ।। ७४ ॥ सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी कयरे खलु ते आउसंतो गोयमा ! तुब्भे वयह तसा पाणा तसा आउ अण्णहा ?, सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी - आउसंतो उदगा ! जे तुब्भे वयह तसभूता पाणा तसा ते वयं वयामो तसा पाणा, जे वयं वयामो तसा पाणा ते तुब्भे वयह तसभूया पाणा, एए संति दुवे ठाणा तुल्य एगट्ठा, किमाउसो ! इमे भे सुप्पणीयतराए भवइ तसभूया पाणा तसा, इमे भे दुप्पणीयतराए भवइ-तसा पाणा तसा, ततो एगमाउसो । पडिक्कोसह एक्कं अभिनंदह, अयं वि भेदो से णो णेंयाउए भवइ ॥ भगवं च णं उदाहु-संतेगइआ मणुस्सा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए, सावयं णं अणुपुवेणं गुत्तस्स लिसिस्सामो, ते एवं संखवेंति, ते एवं संखं ठवयंति, ते एवं संखं ठावयंति, rorत्थ अभिओएणं गाहावइचोरग्गहणविमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दंड, तंपि तेसिं कुसलमेव भवइ ॥ ७५ ॥ कठिन शब्दार्थ - तसभूया त्रसभूत तुल्ला - तुल्य, एगट्ठा- एकार्थक, सुप्पणीयतराए - सुप्रणीततर, दुप्पणीयतराए - दुष्प्रणीततर, पडिक्कोसह - निन्दा करते हो, अभिनंदह- अभिनंदन - प्रशंसा करते हो, णेयाउए - न्याय युक्त, कुसलं कुशल, एव ही । - १९४ **************************** Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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