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________________ अध्ययन ७ १९३ वाक्य में त्रस पद के उत्तर भूत पद को लगाना न्याय संगत नहीं है ? क्या यह पद्धति आपको भी पसन्द है ? मेरी तो धारणा यह है कि इस प्रकार प्रत्याख्यान करने से स्थावर रूप से उत्पन्न त्रसों के घात होने पर भी प्रतिज्ञा भंग नहीं होती है अन्यथा प्रतिज्ञा भंग होने में कोई सन्देह नहीं है ।। ७३ ॥ सवायं भगवं गोयमे ! उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-आउसंतो ! उदगा णो खलु अम्हे एयं रोयइ, जे ते समणा वा माहणा वा एवमाइक्खंति जाव परूवेंति णो खलु ते समणा वा णिग्गंथा वा भासं भासंति, अणुतावियं खलु ते भासं भासंति, अभाइक्खंति खलु ते संमणे समणोवासए वा, जेहिंवि अण्णेहिं जीवहिं पाणेहिं भूएहि सत्तेहिं संजमति ताणवि ते अब्भाइक्खंति, कस्स णं तं हेडं ?, संसारिया खलु पाणा, तसावि पाणा थावरत्ताए पच्चायति, थावरावि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववजति, थावरकायाओ विप्प-मुच्चमाणा तसकासि उववजंति, तेसिं च णं तसकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं अघत्तं ॥ ७४॥ कठिन शब्दार्थ - रोगह- रुचिकर (अच्छा) लगता है, अणुतावियं - ताप को उत्पन्न करने वाली, अभाइक्वांति - अभ्याख्यान करते हैं, अपसं- अघात्य-घात करने योग्य नहीं। भावार्थ - उदक पेढाल पुत्र के द्वारा पूर्वोक्त प्रकार से पूछे हुए श्री गौतम स्वामी ने वाद के सहित उससे कहा है कि - हे उदक ! तुम जो प्रत्याख्यान की रीति बतला रहे हो वह मुझको पसंद नहीं है। तुम प्रत्याख्यान के वाक्य में त्रस पद के पश्चात् भूत पद का प्रयोग निरर्थक करते हो क्योंकि जिसको त्रस कहते हैं उसी को सभूत भी कहते हैं इसलिये त्रसपद से जो अर्थ प्रतीत होता है वही अर्थ भूत शब्द के प्रयोग से भी प्रतीत होता है फिर भूत शब्द के जोड़ने का क्या प्रयोजन है ? भूत शब्द के प्रयोग करने से तो उल्टे अनर्थ भी सम्भव है क्योंकि भूत शब्द उपमा अर्थ में भी आता है, जैसे कि"देवलोकभूतं नगरमिदम्" अर्थात् यह नगर देवलोक के तुल्य है । इस प्रकार 'भूत' शब्द का अर्थ 'उपमा' होने से त्रसभूत पद का त्रस के सदृश अर्थ भी हो सकता है और ऐसा अर्थ होने पर त्रस के सदृश प्राणी के वध का त्याग रूप अर्थ प्रतीत होगा, त्रस प्राणी का त्याग नहीं। परन्तु यह इष्ट नहीं है अतः त्रस पद के उत्तर भूत शब्द का प्रयोग करके जो अर्थ इष्ट नहीं उसके होने का संशय उत्पन्न करना ठीक नहीं है । यदि भूत शब्द का उपमा अर्थ न किया जाय तो उसके प्रयोग का यहां कोई फल नहीं है क्योंकि उस दशा में भूत शब्द उसी अर्थ का बोधक होगा जिसका त्रस पद बोधक है। जैसे कि"शीतीभूतमुदकम्" इस वाक्य में 'शीत' पद के उत्तर आया हुआ 'भूत' शब्द 'शीत' शब्द के अर्थ को ही बताता है उससे भिन्न अर्थ को नहीं। यदि वर्तमान अर्थ में 'भूत' शब्द का प्रयोग यहां माना जाय तो भी कुछ फल नहीं है क्योंकि जो जीव वर्तमान काल में त्रस के शरीर में आया है वह सदा इसी शरीर में Jain Education International www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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