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________________ १९२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ गये हुए उस नागरिक पुरुष का घात करे तो वह अपनी प्रतिज्ञा को अवश्य नष्ट करता है इसी तरह जो पुरुष त्रस शरीर को छोड़ कर स्थावर काय में आये हुए त्रस प्राणी को मारता है वह त्रस प्राणी को न मारने की प्रतिज्ञा का उल्लंघन करता है। जो त्रस प्राणी स्थावर काय में आते हैं उनमें कोई ऐसा चिह्न नहीं होता जिससे उनकी पहिचान हो सके ऐसी दशा में जिसको दण्ड न देने की प्रतिज्ञा की गई थी उसी को दण्ड दिया जाता है इसलिये त्रस प्राणी को न मारने का जो प्रत्याख्यान करना है वह दुष्प्रत्याख्यान करना है और उक्त रीति से प्रत्याख्यान कराना भी दुष्प्रत्याख्यान कराना है ।।७२॥ एवं णं पच्चक्खंताणं सुपच्चक्खायं भवइ, एवं णं पच्चक्खावेमाणाणं सुपच्चक्खावियं भवइ, एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा णाइयरंति सयं पइण्णं, णण्णत्थं अभिओगेणं गाहावइचोरग्गहणविमोक्खणयाए तसभूएहिं पाणेहिं णिहाय दंडं, एवमेव सइ भासाए परक्कमे विजमाणे जे ते कोहा वा लोहा वा परं पच्चक्खावेंति अयंवि णो उवएसे णो णेयाउए भवइ, अवियाई आउसो ! गोयमा ! तुब्भं वि एवं रोयइ ? ७३॥ कठिन शब्दार्थ - तसभूएहिं - त्रस भूतों से, भासाए - भाषा, परिकम्मे - परिकर्म होने पर, उवएसे - उपदेश, णेयाउए- न्याय युक्त । भावार्थ - उदक पेढाल पुत्र गौतम स्वामी से कहता है कि जो लोग त्रस प्राणी को मारने का त्याग करते हैं और जो कराते हैं उन दोनों की त्याग पद्धति अच्छी नहीं है यह पूर्व पाठ में बता दिया गया है अतः मैं जो प्रत्याख्यान की पद्धति बताता हूँ उसके अनुसार प्रत्याख्यान करना निर्दोष है । वह पद्धति यह है - त्रसपद के आगे 'भूत' पद को जोड़ कर प्रत्याख्यान करने से अर्थात् मुझको त्रसभूत .. प्राणी को मारने का त्याग है ऐसे शब्द प्रयोग के साथ त्याग करने से त्याग का आशयं यह होता है किजो प्राणी वर्तमान काल में त्रसरूप से उत्पन्न हैं उनको दण्ड देने का त्याग है परन्तु जो वर्तमान काल में त्रस नहीं है किन्तु आगे जाकर त्रसरूप में उत्पन्न होने वाले हैं अथवा जो भूतकाल में त्रस थे उनको मारने का त्याग नहीं है ऐसी दशा में स्थावर पर्याय में आये हुए प्राणी को दण्ड देने पर भी प्रतिज्ञा भंग नहीं हो सकती है । अतः आप लोग प्रत्याख्यान वाक्य में केवल त्रस पद का प्रयोग न करके यदि भूत पद के साथ उसका प्रयोग करें अर्थात् त्रसभूत प्राणी को मारने का त्याग है ऐसा वाक्य कहें तो प्रतिज्ञा भङ्ग का दोष नहीं आ सकता है। जैसे कोई पुरुष घृत के खाने का त्याग लेकर यदि दधि(दही) खाता है तो उसका व्रत नष्ट नहीं होता है क्योंकि दधि में घृत होने पर भी वर्तमान में वह घृत नहीं है इसी तरह त्रस पद के उत्तर भूत पद जोड़ देने से भाषा में ऐसी शक्ति आ जाती है जिससे स्थावर प्राणी के पर्याय में आये हुए प्राणी के घात से व्रतभंग नहीं होता है। अतः उक्त भाषा में दोष निवारण की शक्ति होते हुए भी जो लोग क्रोध या लोभ के वशीभूत हो कर प्रत्याख्यान के वाक्य में त्रस पद के उत्तर भूत पद का प्रयोग न कर के प्रत्याख्यान कराते हैं वे दोष का सेवन करते हैं। हे गौतम ! क्या प्रत्याख्यान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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