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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
को बनिये के तुल्य वही बतला सकता है जो सावध अनुष्ठान द्वारा अपने आत्मा को दण्ड देने वाला अज्ञानी है अत: हे गोशालक ! यह कार्य तुम्हारे अज्ञान के अनुरूप ही है। हे गोशालक ! प्रथम तो तुम स्वयं कुमार्ग में प्रवृत्ति कर रहे हो और उस पर भी जगद्वन्द्य और सब अतिशयों के धारी भगवान् की बनिये से तुलना करते हो यह तुम्हारा महान् अज्ञान का ही परिणाम है ।। २५॥
अब बौद्ध मत की मान्यता बतलाई जाती है - पिण्णागपिंडीमवि विद्ध सूले, केइ पएज्जा पुरिसे इमेत्ति । अलाउयं वावि कुमारएत्ति, स लिप्पइ पाणिवहेण अम्हं।। २६॥
कठिन शब्दार्थ - पिण्णागपिंडी - खली के पिण्ड को, अवि - भी, पएज्जा - पकावे अलाउयं - तुम्बे (लौकी) को पाणिवहेण - प्राणी वध के पाप से।
भावार्थ - कोई पुरुष खली (तेल निकला हुआ तिलों) के पिण्ड को भी यदि "यह पुरुष है" यह मान कर शूल में बेध कर पकावे अथवा तुम्बे को बालक मान कर पकावे तो वह हमारे मत में .. प्राणी के वध करने के पाप का भागी होता है ॥ २६॥ ... विवेचन - पूर्वोक्त प्रकार से गोशालक को परास्त करके भगवान् के पास जाते हुए आर्द्रकमुनि को मार्ग में शाक्य (बौद्ध) मतवाले भिक्षुओं से भेंट हुई। वे आर्द्रकुमार से कहने लगे कि - हे आर्द्रकुमार ! तुमने बनिये के दृष्टान्त को दूषित करके बाह्य अनुष्ठान को दूषित किया है यह अच्छा किया है क्योंकि बाह्य अनुष्ठान तुच्छ है आन्तरिक अनुष्ठान ही संसार और मोक्ष का साधन है यही हमारे दर्शन का सिद्धान्त है। इस विषय को इस प्रकार समझना चाहिये - जैसे कोई मनुष्य उपद्रव आदि से पीड़ित होकर परदेश में चला गया और वह दैववश म्लेच्छों के देश में जा पहुंचा। वहां मनुष्यों को पका कर खाने वाले म्लेच्छ निवास करते थे अतः उनके भय से वह पुरुष खली के पिण्ड के ऊपर अपने वस्त्रों को डालकर कहीं छिप गया। म्लेच्छ उसे ढूंढ रहे थे उन्होंने उसके वस्त्र से ढके हुए खली के पिण्ड को देखकर उसे मनुष्य समझा और शूल में बेधकर उस पिण्ड को पकाया तथा वस्त्र से ढके हुए किसी तुम्बे को बालक समझ कर उसे भी पकाया इस प्रकार मनुष्य बुद्धि से खली के पिण्ड और बालक बुद्धि से तुम्बे को पकाने वाले उन म्लेच्छों को मनुष्यवध का पाप लगा क्योंकि आन्तरिक भाव के अनुसार ही पाप पुण्य होता है । यद्यपि उन म्लेच्छों के द्वारा मनुष्य का वध नहीं हुआ तथापि उनके चित्त के दूषित होने से उन्हें मनुष्य वध का ही पाप हुआ यह हमारा सिद्धान्त है। अतः द्रव्य से प्राणी का घात न करने पर भी चित्त के दूषित होने से जीव को प्राणी के घात का पाप लगता है यह जानना चाहिये ।
अहवा वि विभ्रूण मिलक्खू सूले, पिण्णागबुद्धीइ णरं पएज्जा। कुमारगं वावि अलाबुयं ति, ण लिप्पइ पाणिवहेण अम्हं॥ २७॥
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