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अध्ययन ६
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कठिन शब्दार्थ - मिलक्खू - म्लेच्छ, अलाबुयं - अलाबु-तुम्बा।
भावार्थ - शाक्य भिक्षु कहते हैं कि - हे आर्द्रकुमार ! म्लेच्छ पुरुष यदि मनुष्य को खली मानकर तथा बालक को तुम्बा मान कर पकावें तो उन्हें प्राणी के वध का पाप नहीं होता है यह हमारा सिद्धान्त है ।। २७॥
पुरिसं च विभ्रूण कुमारगं वा, सूलंमि केई पए जायतेए । । पिण्णायपिंडं सतिमारुहेत्ता, बुद्धाण तं कप्पइ पारणाए॥ २८॥
कठिन शब्दार्थ - जायतेए - आग में, बुद्धाण - बुद्ध के लिये, विद्धण - बिंध कर, सतिं - विद्यमान, आरुहेत्ता - आरोपित करके।
भावार्थ - शाक्य भिक्षु कहते हैं कि - कोई पुरुष मनुष्य को अथवा बालक को खली का पिण्ड मानकर उन्हें शूल में वेध कर यदि आग में पकावे तो उसे प्राणी के वध का पाप नहीं लगता है और वह आहार पवित्र तथा बुद्धों के पारणा के योग्य है । जो कार्य भूल से हो जाता है तथा जो मन के संकल्प के बिना किया जाता है वह बन्धन का कारण नहीं है ।। २८॥
सिणायगाणं तु दुवें सहस्से, जे भोयए णियए भिक्खुयाणं ।
ते पुण्णखधं सुमहं, जिणित्ता, भवंति आरोप्प महंतसत्ता।। २९॥ ... कठिन शब्दार्थ - सिणायगाणं - स्नातक, णियए - नित्य, पुण्णखधं - पुण्य स्कंध को, आरोप्प - आरोप्य नामक, महंतसत्ता- महासत्त्व।
भावार्थ - शाक्य मतवाले भिक्षु आर्द्रकुमार मुनि से कहते हैं कि - हे आर्द्रकुमार ! जो पुरुष प्रतिदिन दो हजार शाक्य भिक्षुओं को अपने यहां भोजन कराता है वह महान् पुण्यपुञ्ज को उपार्जन करके आरोप्य नामक सर्वोत्तम देवता होता है ॥ २९ ॥
अजोगरूवं इह संजयाणं, पावं तु पाणाण पसज्झ काउं । अबोहिए दोण्हवि तं असाहु, वयंति जे यावि पडिस्सुणंति॥ ३० ॥ कठिन शब्दार्थ - अजोगरूवं - अयोग्य रूप, पसझ- प्रसह्य-जबर्दस्ती, काउं - करके।
भावार्थ - आर्द्रकमुनि कहते हैं कि यह शाक्य मत संयमी पुरुषों के योग्य नहीं है। प्राणियों का घात करके पाप का अभाव कहना दोनों के लिये अज्ञानपूर्वक और बुरा है जो ऐसा कहते हैं और जो सुनते हैं ॥ ३० ॥
विवेचन - शाक्य मुनियों का सिद्धान्त सुनकर आईकमुनि कहते हैं कि - हे शाक्यभिक्षुओ ! आपका यह पूर्वोक्त सिद्धान्त संयमी पुरुषों के ग्रहण करने योग्य नहीं है। जो पुरुष पांच समिति और तीन गुप्तियों को पालन करता हुआ सम्यग् ज्ञान के साथ क्रिया करता है और अहिंसा व्रत का आचरण करता है उसी की भावशुद्धि होती है परन्तु जो पुरुष अज्ञानी है और मोह में पड़ कर खली और पुरुष
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