SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन ६ - Jain Education International भावार्थ - सावध अनुष्ठान करने से बनिये का जो उदय होता है वह एकान्त तथा आत्यन्तिक नहीं है ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं। जो उदय एकोन्त तथा आत्यन्तिक नहीं है उसमें कोई गुण नहीं है परन्तु भगवान् जिस उदय को प्राप्त हैं वह सादि और अनन्त है। वे दूसरे को भी इसी उदय की प्राप्ति के लिये उपदेश देते हैं । भगवान् त्राण (रक्षा) करने वाले और सर्वज्ञ हैं ॥ २४ ॥ | विवेचन - आर्द्रकमुनि कहते हैं कि हे गोशालक ! उद्योग धन्धा आदि के द्वारा बनिये को लाभ कभी होता है और कभी नहीं होता है तथा कभी लाभ के स्थान में भारी हानि भी हो जाती है इसलिये विद्वान् लोग कहते हैं कि बनिये के लाभ में कोई गुण नहीं है। परन्तु भगवान् ने धर्मोपदेश के द्वारा जो निर्जरा रूप लाभ प्राप्त किया है तथा दिव्य ज्ञान की प्राप्ति की है वही यथार्थ लाभ है। वह लाभ सादि और अनन्त है। ऐसे उदय को स्वयं प्राप्त कर भगवान् दूसरे प्राणियों को भी उसकी प्राप्ति कराने के लिये धर्म का उपदेश देते हैं । भगवान् ज्ञातकुल में उत्पन्न और समस्त पदार्थों के ज्ञाता हैं तथा वे भव्यजीवों को संसार सागर से पार करने वाले हैं अतः भगवान् को बनिये के समान कहना मिथ्या है ।। २४ ॥ अहिंसयं सव्वपयाणुकंपी, धम्मे ठियं कम्मविवेगहेउं । तमावदंडेहिं समायरंता, अबोहीए ते पडिरूवमेयं ॥ २५ ॥ १६९ **********EEEEEEEE********** कठिन शब्दार्थ - सव्वपयाणुकंपी - समस्त प्राणियों पर अनुकंपा करने वाले, कम्मविवेगहेडं - कर्म विवेक (क्षय) के लिये । भावार्थ - भगवान् प्राणियों की हिंसा से रहित हैं तथा वे समस्त प्राणियों पर अनुकम्पा करने वाले हैं वे धर्म में सदा स्थित और कर्म के विवेक के कारण हैं। ऐसे उस भगवान् को तुम्हारे जैसे आत्मा को दण्ड देने वाले पुरुष ही बनिये के सदृश कहते हैं यह कार्य तुम्हारे अज्ञान के अनुरूप ही है ॥ २५ ॥ . विवेचन - भगवान् महावीर स्वामी देवताओं का समवसरण, कमल, तथा देवच्छन्दक सिंहासन आदि का उपभोग करते हैं इसलिये आंधाकर्मी स्थान का उपभोग करने वाले साधु की तरह भगवान् भी अनुमोदन रूप कर्मों से उपलिप्त क्यों नहीं हो सकते हैं ? इस गोशालक की आशंका की निवृत्ति के लिये आर्द्रकमुनि कहते हैं कि हे गोशालक ! यद्यपि भगवान् महावीर स्वामी देवताओं द्वारा किये हुए समवसरण आदि का उपभोग करते हैं तथापि उनको कर्मबन्ध नहीं होता हैं क्योंकि भगवान् प्राणियों की हिंसा न करते हुए उनका उपभोग करते हैं तथा समवसरण आदि के लिये उनकी स्वल्प भी इच्छा नहीं होती किन्तु तृण, मणि, मुक्ता सुवर्ण और पत्थर को समान दृष्टि से देखते हुए वे उनका उपभोग करते हैं। देवगण भी प्रवचन की उन्नति और भव्यजीवों को धर्म में प्रवृत्त करने के लिये एवं अपने हित के लिये समवसरण करते हैं अतः भगवान् का इसमें स्वल्प भी आग्रह नहीं होने से उनको कर्म बन्ध नहीं होता है । भगवान् समस्त प्राणियों पर अनुकम्पा करने वाले और सच्चे धर्म में स्थित हैं। ऐसे भगवान् For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy