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________________ १६८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ भावार्थ - बनिये धन के अन्वेषी और मैथुन में अत्यन्त आसक्त रहने वाले होते हैं। वे भोजन की प्राप्ति के लिये इधर-उधर जाते रहते हैं। अतः हम लोग तो बनियों को काम में आसक्त प्रेम रस में फंसे हुए और अनार्य कहते हैं ॥ २२॥ विवेचन - आर्द्रकमुनि कहते हैं कि-हे गोशालक ! बनिये धन के अन्वेषी, स्त्री सुख में आसक्त एवं आहार प्राप्ति के लिये इधर-उधर जाते हैं इसलिये हम लोग बनियों को कामासक्त अनार्य्य कर्म करने वाले और सुख में फंसे हुए कहते हैं परन्तु भगवान् महावीर प्रभु ऐसे नहीं है इसलिये बनियों के साथ उनकी सम्पूर्ण रूप से तुल्यता बताना मिथ्या है।। २२॥ आरंभगं चेव परिग्गहं च, अविउस्सिया णिस्सिय आयदंडा ।. .. . तेसिं च से उदए जं वयासी, चउरंतणंताय दुहाय णेह ॥ २३ ॥ कठिन शब्दार्थ - अविउस्सिया - नहीं छोड़ कर, आयदंडा - आत्मा को दण्ड देने वाले, चउरंत - चातुरंत-चार गति में जिसका अंत है ऐसा संसार, अणंताय - अनन्त संसार के लिये। भावार्थ - बनिये आरम्भ और परिग्रह को नहीं छोड़ते हैं किन्तु वे उनमें अत्यन्त बद्ध (गृद्ध) रहते हैं तथा वे आत्मा को दण्ड देने वाले हैं। उनका वह उदय, जिसे तू उदय बतला रहा है वह वस्तुतः । उदय नहीं है किन्तु वह चतुर्गतिक संसार को प्राप्त कराने वाला और दुःख का कारण है एवं वह उदय कभी नहीं भी होता है ॥ २३ ॥ . विवेचन - आर्द्रकमुनि गोशालक से कहते हैं कि - बनिये सावध अनुष्ठान के त्यागी नहीं होते हैं तथा वे परिग्रह का भी त्याग नहीं करते हैं। वे क्रय (खरीदना) विक्रय (बेचना) पचन (पकाना) और पाचन (पकवाना) आदि सावध कार्यों को करते हैं और धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण और द्विपद, चतुष्पद आदि पदार्थों में अतिशय ममत्व रखते हैं। वे असत् आचरण में प्रवृत्त रहते हुए अपनी आत्मा को अधोगति में गिराकर उसे दण्ड देते हैं। वे जिस लाभ के निमित्त इन कार्यों को करते हैं उसको यद्यपि तुम भी लाभ मान रहे हो परन्तु वह विचार करने पर लाभ नहीं है क्योंकि उसके कारण जीव को चतुर्गतिक संसार में अनन्त काल तक भ्रमण करना पड़ता है अतः विचार करने पर वह महान् हानि है। जिस धन के उपार्जन के लिये बनिये नाना प्रकार के सावध कार्य करते हैं वह धन भी सबको प्राप्त नहीं होता है किन्तु किसी को उसकी प्राप्ति होती है और किसी को उद्योग करने पर भी उसकी प्राप्ति नहीं होती है ।। २३ ॥ णेगंत णच्चंतिय ओदए सो, वयंति ते दो विगुणोदयंमि । से उदए साइमणंतपत्ते, तमुदयं साहयइ ताई णाई ॥२४॥ कठिन शब्दार्थ - ण - नहीं, एगंत - एकान्त, अच्चंतिय - आत्यन्तिक, ओदए - उदय, साइं - सादि-जिसकी आदि है, अणंतपत्ते - अनन्त प्राप्त, ताई - त्राता-रक्षक, णाई - ज्ञायी-ज्ञाता, जानने वाला। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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