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________________ १६२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ ते अण्णमण्णस्स उ गरहमाणा, अक्खंति भो समणा माहणा य । सओ य अस्थि असओ य णत्थि, गरहामो दिढेि ण गरहामो किंचि ॥१२॥ भावार्थ - आकमुनि कहते हैं कि - वे श्रमण और ब्राह्मण परस्पर एक दूसरे की निन्दा करते हुए अपने-अपने दर्शन की प्रशंसा करते हैं वे अपने दर्शन में कही हुई क्रिया के अनुष्ठान से पुण्य होना और परदर्शनोक्त क्रिया के अनुष्ठान से पुण्य न होना बतलाते हैं अतः मैं उनकी इस एकान्त दृष्टि का खण्डन करता हूँ और कुछ नहीं ॥ १२ ॥ ण किंचि रूवेणऽभिधारयामो, सदिदिमग्गं तु करेनु पाउं । मग्गे इमे किट्टिए आरिएहिं, अणुत्तरे सप्पुरिसेहिं अंजू ॥ १३॥ कठिन शब्दार्थ-सदिट्ठिमग्गं - अपने दर्शन के मार्ग का, सप्पुरिसेहि-सत्पुरुषों द्वारा, अंजू-सरल। भावार्थ - हम किसी के रूप और वेष आदि की निन्दा नहीं करते हैं। किन्तु अपने दर्शन के मार्ग का प्रकट करते हैं यह मार्ग सर्वोत्तम है और आर्य सत्पुरुषों के द्वारा निर्दोष कहा गया है ॥ १३ ॥ उहुं अहेयं तिरियं दिसास, तसा य जे थावर जे य पाणा। भूयाहिसंकाभि दुगुंछमाणा, णो गरहती बुसिमं किंचि लोए॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - भूयाहिसंकाभि - प्राणियों की हिंसा से, दुगुंछमाणा - दुगुंछा-घृणा रखने वाले, बुसिम - संयमी । भावार्थ - ऊपर, नीची और तिरछी दिशाओं में रहने वाले जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं उन प्राणियों की हिंसा से घृणा करने वाले संयमी पुरुष इस लोक में किसी की भी निन्दा नहीं करते हैं ॥१४॥ विवेचन - गोशालक आर्द्रकुमार से कहता है कि-हे आर्द्रकुमार ! तुम कच्चा जल, बीज काय और आधा कर्म आदि के उपयोग करने से कर्म का बन्ध बताकर दूसरे समस्त दार्शनिकों की निन्दा कर रहे हो क्योंकि समस्त दूसरे दार्शनिक शीतजल बीजकाय और आधा कर्म का उपयोग करते हुए संसार से पार होने का प्रयत्न करते हैं तथा वे अपने-अपने दर्शनों को जगत् में प्रकट करते हुए उन दर्शनों में विधान किए हुए आचरण से मुक्ति की प्राप्ति बतलाते हैं परन्तु यदि शीत जल बीजकाय और आधाकर्म के सेवन से कर्मबन्ध माना जाय तब तो इन दार्शनिकों का प्रयत्न निरर्थक ही है वह मुक्ति के साधन के बदले में बन्धन का ही साधक होगा इसलिये तुम सब दर्शनों की निन्दा कर रहे हो यह गोशालक आर्द्रकुमार से कहता है। इस गोशालक के आक्षेप का समाधान करते हुए आर्द्रकुमार कहते हैं कि - हे गोशालक ! हम किसी की निन्दा नहीं करते हैं किन्तु वस्तु स्वरूप का कथन करते हैं। देखो, सभी दार्शनिक अपने-अपने दर्शन की प्रशंसा और परदर्शन की निन्दा किया करते हैं तथा उनका अनुष्ठान भी परस्पर विरुद्ध देखा जाता है। तो भी वे अपने पक्ष का समर्थन और परपक्ष को दूषित करते हैं तथा सभी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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