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________________ अध्ययन ६ १६३ अपने आगम में किये हुए विधान से मुक्तिलाभ और परदर्शन में किये हुए विधान से मुक्ति का निषेध करते हैं। यह बात सत्य है मिथ्या नहीं है परन्तु मैं इस नीति का आश्रय लेकर किसी की निन्दा नहीं करता किन्तु मध्यस्थ भाव को धारण करके वस्तु के सच्चे स्वरूप को बतला रहा हूँ। सभी अन्य दार्शनिक एकान्त दृष्टि को लेकर अपने पक्ष का समर्थन और परमत का निषेध करते हैं। परन्तु उनकी यह एकान्त दृष्टि ठीक नहीं है क्योंकि एकान्त दृष्टि से वस्तु का यथार्थ स्वरूप नहीं जाना जाता है। वस्तु स्वरूप को जानने के लिये अनेकान्त दृष्टि ही उपयोगी है अतः उसका आश्रय लेकर मैं वस्तु के यथार्थ स्वरूप को बता रहा हूँ ऐसा करना किसी की निन्दा करना नहीं है अपितु वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करना है अतएव विद्वानों ने कहा है कि - . नेत्रनिरीक्ष्य बिलकण्टककीटसन्,ि सम्यक् पथा व्रजति तान् परिहत्य सर्वान्। कुज्ञानकुश्रुतिकुमार्गकुदृष्टिदोषान्, सम्यग् विचारयत कोत्र परापवादः ।। अर्थात् नेत्रवान् पुरुष नेत्रों के द्वारा बिल, कण्टक, कीट, और सर्पो को देखकर तथा उनको वर्जित करके उत्तम मार्ग से चलता है इसी तरह विवेकी पुरुष कुज्ञान कुश्रुति और कुमार्ग और कुदृष्टि को अच्छी तरह विचार कर सन्मार्ग का आश्रय लेते हैं अतः ऐसा करना किसी की निन्दा करना नहीं है। वस्तुतः जो पुरुष पदार्थ को एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य एवं सामान्य स्वरूप तथा विशेष स्वरूप ही मानने वाले एकान्तवादी अन्यदर्शनी हैं वे ही दूसरे की निन्दा करते हैं परन्तु जो अनेकान्तवादी अनेकान्त पक्ष को मानने वाले हैं वे किसी की भी निन्दा नहीं करते हैं क्योंकि वे पदार्थों को कथञ्चित् सत् और कथञ्चित् असत् तथा कथञ्चित् नित्य और कथञ्चित् अनित्य एवं कथञ्चित् .. सामान्यरूप और कथञ्चित् विशेषरूप स्वीकार करके उन सबों का समन्वय करते हैं । ऐसा किये बिना वस्तुस्वरूप का ज्ञान जगत् को हो नहीं सकता है इसलिये राग द्वेष रहित होकर हम एकान्त दृष्टि को दूषित करते हुए अनेकान्तवाद का समर्थन करते हैं । हम किसी श्रमण या ब्राह्मण के निन्दित अङ्ग अथवा वेष को बताकर उनकी निन्दा नहीं करते हैं किन्तु उन्होंने अपने दर्शन में जो कहा है वह प्रकट कर देते हैं । ऐसा करना उनकी निन्दा नहीं है । एवं परमत को बताकर अपने मत की विशेषता बताना भी कोई दोष नहीं है अतः परदार्शनिकों की निन्दा का आक्षेप तुम्हारा ठीक नहीं है। आर्द्रकमुनि कहते हैं कि - हे गोशालक ! सर्वज्ञ सर्वदर्शी आर्य पुरुषों के द्वारा कहा हुआ जो मार्ग सबसे उत्तम तथा वस्तु के सच्चे स्वरूप को प्रकट करने वाला सम्यग् दर्शन ज्ञान और चारित्ररूप है वही जीवों के कल्याण का कारण है। उस धर्म के पालन करने वाले संयमी पुरुष ऊपर नीचे तिरछे दिशाओं में रहने वाले प्राणियों के दुःख के भय से किसी की निन्दा नहीं करते हैं । वे जिन कार्यों से प्राणियों का उपमर्द सम्भव है उन सावध अनुष्ठानों का आचरण कदापि नहीं करते हैं। वे राग द्वेष रहित पुरुष जगत् के उपकारार्थ जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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