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________________ अध्ययन ६ कठिन शब्दार्थ - जीवियट्ठी - जीवन रक्षा के लिये, णाइसंजोगं - जाति वालों के संयोग-संसर्ग को, कायोवगा - कायोपग-काया अर्थात् शरीर का पोषण करने वाले, अवि अपि भी, प्पहाय छोड़ कर, ण- नहीं, अंतकरा कर्मों का नाश करने वाले । भावार्थ - जो पुरुष भिक्षु होकर भी सचित्त बीजकाय, कच्चा जल और आधाकर्म तथा स्त्री आदि का सेवन करते हैं और जीवन रक्षा के लिये भिक्षावृत्ति करते हैं। वे अपने ज्ञातिसंसर्ग को छोड़कर भी अपने शरीर के ही पोषक हैं। वे कर्मों का नाश करने वाले नहीं हैं ॥ १० ॥ Jain Education International १६१ - आर्द्रकुमार ! तुमने अपने धर्म की बात तो कही अब मेरे धर्म के सिद्धांत यह है कि जो पुरुष अकेला विचरने वाला और तपस्वी है आधाकर्म और स्त्रियों का सेवन भले ही करे परन्तु उसको किसी प्रकार का पाप नहीं होता है ।। ७ ॥ विवेचन- गोशालक अपने धर्म का तत्त्व समझाने के लिये आर्द्रकुमार से कहता है कि हे नियमों को सुनो। मेरे धर्म का वह चाहे कच्चा जल, बीजकाय, For Personal & Private Use Only - गोशालक के इस सिद्धांत का खण्डन करते हुए आर्द्रकमुनि कहते हैं कि हे गोशालक ! तुम्हारा यह सिद्धांत ठीक नहीं है क्योंकि बीजकाय, कच्चा जल, आधाकर्म और स्त्रियों का सेवन तो गृहस्थगण भी करते हैं परन्तु वे श्रमण नहीं है क्योंकि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य्य और अपरिग्रह इन पांच • वस्तुओं का सेवन करना श्रमण पुरुष का लक्षण है। बीजकाय और स्त्री आदि का सेवन करना नहीं, इनके सेवन से तो श्रमणपने से ही जीव पतित हो जाता है अतः तुम्हारा सिद्धान्त अयुक्त है। यदि अकेले रहने मात्र से किसी प्रकार का दोष न लगे और वह साधु माना जाय तो परदेश आदि जाते समय अथवा बहुत से ऐसे अवसरों में गृहस्थ भी अकेले रहते हैं और धन न मिलने पर वे भी क्षुधा (भूख) और पिपासा (प्यास) के कष्टों को सहन करते हैं तथापि वे गृहस्थ ही माने जाते हैं श्रमण नहीं माने जाते। अतः जो पुरुष अपने परिवार आदि के संसर्ग को छोड़ कर प्रवज्या लेकर भिक्षु हो गया है वह यदि कच्चा जल, बीजकाय और आधा कर्म तथा स्त्री का सेवन करे तो उसे दाम्भिक समझना चाहिये। वह जीविका के लिये भिक्षावृत्ति को अङ्गीकार करता है, कर्मों का अन्त (क्षय) करने के लिये नहीं । अतः जो पुरुष छह काय के जीवों का आरम्भ करते हैं वे चाहे द्रव्य से ब्रह्मचारी भी हों परन्तु वे संसार को पार करने में समर्थ साधु नहीं है अतः तुम्हारा सिद्धान्त मिथ्या है ।। ८- ९-१०॥ इमं वयं तु तुम माउकुव्वं, पावाइणो गरिहसि सव्व एव । पावाइणो पुढो किट्टयंता, सयं सयं दिट्ठि करेंति पाउ ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - पाउकुव्वं प्रकट करते हुए, पावाइणो- प्रावादुक (वादी), गरिहसि - निन्दा करते हो, दिट्ठि - दृष्टि-दर्शन को । भावार्थ - गोशालक कहता है कि हे आर्द्रकुमार ! तुम इस वचन को कहते हुए सम्पूर्ण प्रावादुकों (अन्य मतावलम्बियों) की निन्दा करते हो, प्रावादुक गण अलग-अलग अपने सिद्धान्तों को बताते हुए अपने दर्शन को श्रेष्ठ कहते हैं ॥ ११ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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