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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
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अर्थात् यदि तुमने रागद्वेष जीत लिये हैं तो जङ्गल में जा कर क्या करोगे ? और यदि राग द्वेष को जीता नहीं है तो भी जङ्गल में जा कर क्या करोगे ? आशय यह है कि-राग द्वेष ही मनुष्य के ध्यान में अन्तर के कारण हैं वे जिसमें नहीं है वह महात्मा चाहे अकेला रहे या हजारों मनुष्यों से घिरा हुआ रहे उसकी स्थिति में जरा भी अन्तर नहीं पड़ता है। अतः लोगों के मध्य में रहना भगवान् के लिये कोई दोष की बात नहीं है ।
जो पुरुष समस्त सावध कर्मों के त्यागी साधु हैं उनको मोक्ष प्राप्ति के लिये भगवान् पांच महाव्रतों के पालन का उपदेश करते हैं और जो देश (अंश रूप) से सावध कर्मों का त्याग करने वाले श्रावक हैं उनके लिये भगवान् पाँच अणुव्रतों का उपदेश करते हैं। भगवान् पाँच आंत्रवों का और सत्तरह प्रकार के संयम का भी उपदेश करते हैं। संवरयुक्त पुरुष को विरति प्राप्त होती है इसलिये भगवान् विरति का भी उपदेश देते हैं। विरति से निर्जरा और निर्जरा से मोक्ष होता है इसलिये भगवान् निर्जरा और मोक्ष का भी उपदेश देते हैं। भगवान् कर्मों से दूर रहने वाले परम तपस्वी हैं अतः उनके ऊपर पाप कर्म करने का आरोप करना मिथ्या है ।। ४-५-६॥
गोशालक का कथन - सीओदगं सेवउ बीयकायं, आहायकम्मं तह इत्थियाओ । एगंतचारिस्सिह अम्ह धम्मे, तवस्सिणो णाभिसमेइ पावं ।।। कठिन शब्दार्थ - सीओदगं- कच्चा पानी, बीयकायं - बीजकाय, आहायकम्मं - आधाकर्म का।
भावार्थ - कच्चा जल, बीजकाय, आधाकर्म तथा स्त्रियों का भले ही वह सेवन करता हो परन्तु जो अकेला विचरने वाला पुरुष है उसको हमारे धर्म में पाप नहीं लगता है ॥७॥
गोशालक के उपरोक्त कथन का उत्तर - सीओदगं वा तह बीयकायं, आहायकम्मं तह इत्थियाओ। एयाइं जाणं पडिसेवमाणा, अगारिणो अस्समणा भवंति॥८॥
भावार्थ - कच्चा जल, बीजकाय, आधाकर्म और स्त्रियाँ इनको सेवन करने वाले गृहस्थ हैं, श्रमण नहीं है ॥ ८ ॥
सिया य बीओदगइत्थियाओ, पडिसेवमाणा समणा भवंतु । अगारिणोऽवि समणा भवंत, सेवंति उ तेऽवि तहप्पगारं॥९॥
भावार्थ- यदि बीजकाय, कच्चा जल, आधाकर्म एवं स्त्रियों को सेवन करने वाले पुरुष भी श्रमण हों तो गृहस्थ भी श्रमण क्यों न माने जावेंगे ? क्योंकि वे भी पूर्वोक्त विषयों का सेवन करते हैं ॥९॥
जे यावि बीओदगभोइ भिक्खू, भिक्खं विहं जायइ जीवियट्ठी। ते णाइसंजोगमविप्पहाय, कायोवगा णंतकरा भवंति ॥१०॥
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