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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
दोनों गाथाओं में बताया गया है। अतः उपरोक्त गाथाओं में आधाकर्म आदि दोष दूषित आहारादि को भोगने का कोई विधान नहीं है। टीकाकार ने आधाकर्म आदि सदोष आहार भोगने का कथन कैसे कर दिया ? ये उनकी वे ही जाने किन्तु यह अर्थ मूल गाथाओं से विपरीत जाता है। अतः यह अर्थ ग्रहण करने योग्य नहीं है।
जमिदं ओरालमाहारं, कम्मगं च तहेव य (तमेव तं)।
सव्वत्थ वीरियं अस्थि, णयि सव्वत्थ वीरियं ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - ओरालं - औदारिक, आहार - आहारक, कम्मर्ग - कार्मण शरीर, वीरियं -
वीर्य शक्ति ।
भावार्थ - ये जो औदारिक, आहारक और कार्मण शरीर हैं वे सब एक ही हैं अथवा वे एकान्त रूप से भिन्न भिन्न हैं ये दोनों एकान्त मय वचन नहीं कहने चाहिये एवं सब पदार्थों में सब पदार्थों की शक्ति मौजूद है अथवा सब में सब की शक्ति नहीं है ये वचन भी नहीं कहने चाहिये ।
एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारोण विज्जइ । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥११॥
भावार्थ - क्योंकि इन दोनों स्थानों के द्वारा व्यवहार नहीं होता है इसलिये इन दोनों स्थानों से व्यवहार करना अनाचार सेवन जानना चाहिये ।
भावार्थ - पूर्वगाथा में आहार के सम्बन्ध में अनाचार का वर्णन किया है । इसलिये इस गाथा में आहार करने वाले शरीर के सम्बन्ध में अनाचार वर्णन किया जाता है। शरीर पाँच प्रकार का होता है -
औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण। जो शरीर सर्व प्रत्यक्ष है और उदार पुद्गलों के द्वारा बना हुआ है वह औदारिक कहलाता है। यह औदारिक शरीर निःसार है इसलिये इसे उराल भी कहते हैं। यह औदारिक शरीर मनुष्य और तिर्यञ्चों का ही होता है। आहारक शरीर वह है जो चौदह पूर्वधारी मुनि के द्वारा किसी विषय में संशय होने पर बनाया जाता है। इस आहारक शरीर का इस गाथा में ग्रहण है इसलिये इससे वैक्रिय शरीर का भी ग्रहण समझना चाहिये। कार्मण शरीर वह है जो कर्मों से बना हुआ है इसके ग्रहण से इसके सहचारी तैजस शरीर का भी ग्रहण करना चाहिये। औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों में से प्रत्येक शरीर तैजस और कार्मण शरीर के साथ ही पाये जाते हैं अतः इनमें परस्पर एकता की आशंका किसी को न हो इसलिये शास्त्रकार ने यहां इनके एकत्व का कथन अनाचार बताया है। आशय यह है कि-औदारिक शरीर ही तैजस और कार्मण शरीर है एवं वैक्रिय शरीर ही आहारक शरीर है ऐसा एकान्त अभेदमय वचन नहीं कहना चाहिये तथा इन शरीरों में एकान्त भेद है यह भी नहीं कहना चाहिये। इस प्रकार एकान्त अभेद और एकान्त भेद के निषेध का कारण यह है कि-इन शरीरों के कारण में भेद है इसलिये एकान्त अभेद इनमें नहीं है, जैसे कि-औदारिक शरीर के
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