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________________ अध्ययन ५ १३५ भावों से गृहस्थ तुल्य है। इसी सूत्र के १० वें अध्ययन की ११ वीं गाथा में आधाकर्मी आहार की इच्छा करने की भी मनाई की है तो फिर उसे भोगने की तो बात ही कहाँ रही? भगवती सूत्र शतक १ उद्देशक ९ में आधाकर्मी भोगने वाला मुनि कर्मों को निबिड़ (सघन) करता है और अनादि अनन्त संसार में बारम्बार परिभ्रमण करता रहता है क्योंकि वैसा करने वाला मुनि आत्म धर्म (श्रुत धर्म और चारित्र धर्म) का उल्लंघन करता है। इसी प्रकार भगवती सूत्र शतक १८ उद्देशक १० तथा प्रश्न व्याकरण सूत्र, उत्तराध्ययन, दशवकालिक आदि सूत्रों में अनेक स्थानों पर आधाकर्मी आदि दोष युक्त आहारादि ग्रहण करने का निषेध किया गया है और कटु फल बताया है परन्तु किसी भी दशा में सामान्य या विशेष कारण से ग्रहण करने का कथन नहीं किया गया है। इससे स्पष्ट है कि आधाकर्म आदि ग्रहण करना शास्त्र सम्मत नहीं है बल्कि समवायांग सूत्र और दशाश्रुत • स्कंन्ध सूत्र में असमाधि और शबल दोष बताया है और निशीथ सूत्र में इसका प्रायश्चित्त बताया है। ___ आचारांग सूत्र अध्ययन आठ उद्देशक दो में बताया है कि - कोई गृहस्थ मुनि के लिए आहारादि बनावें परन्तु मुनि को मालूम हो जाने पर वह उस आधाकर्म आदि अशुद्ध आहारादि को न ले। यदि :: नहीं लेने से गृहस्थ कुपित हो जाए और उसको मारे-पीटे तथा दूसरों से कहे कि इसे मारो-पीटो जीव रहित कर दो इत्यादि संकट उस गृहस्थ के द्वारा प्राप्त होने पर भी वह मुनि उस संकट को सहन करें तथा भूख प्यास से पीड़ित होने पर भी वैसा दूषित आहारादि न लेवे। ऐसे दुःसह्य आपत्ति के समय भी शास्त्रकार ने किसी तरह का अपवाद नहीं रखा है, तो फिर भूख प्यास आदि से पीड़ित दशा में आधाकर्म आदि का ग्रहण करना शास्त्र सम्मत कैसे हो सकता है ? ___ उपरोक्त आठवीं और नवमी गाथाओं में आधाकर्म आदि सदोष आहारादि लेने का कोई उल्लेख ही नहीं है और न कोई. ऐसा अर्थ ही प्रकट होता है इन गाथाओं में तो यह बतलाया गया है कि आधाकर्मी भोगने वाले को कर्म बन्ध होता ही है या नहीं ही होता है ऐसा निश्चय करके एकान्त भाषा नहीं बोलना चाहिए क्योंकि छद्मस्थता के कारण भोक्ता सम्बन्धी आन्तरिक ज्ञान न होने से निश्चय कारी भाषा बोलने का निषेध है क्योंकि जिस मुनि के शुद्धि का पूर्ण ध्यान रखते हुए भी अनजान में आधाकर्मी आहार आदि भोगने में आ गया हो तो उसके (प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु वर्ग के अतिस्थित बाईस तीर्थंकरों के साधु वर्ग में जिनके लिए आहारादि किया गया है उनको छोड़कर शेष साधु वर्ग के और छेदोपस्थापनीय चारित्र देने योग्य नवदीक्षित को अनैषणिक आहारादि आ जाने पर देने का विधान होने से उनको वह आहारादि दिए जाने पर वह उसको काम में लेता हो तो इन सब के कर्म बन्धन हुए ऐसा कैसे कहा जा सकता है, (अर्थात् नहीं कहा जा सकता है) ऐसी परिस्थिति में उनके तत्सबन्धी कर्म बन्ध नहीं होने से उनके कर्मबन्ध हुए ऐसा कहना और उपरोक्त मुनियों के अतिरिक्त जो जानबूझकर उपरोक्त प्रकार से आधाकर्म आदि दोष दूषित आहारादि जिसने भोगा हो उसके तत्संबन्धी कर्म बन्ध होने से कर्म बन्ध नहीं हुए इस प्रकार बोलना अनाचीर्ण दोष है। यह इन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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