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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
बात न कहकर यही कहना चाहिये कि-वध्य और वध करने वाले प्राणियों के भाव की अपेक्षा से कर्मबन्ध में कथञ्चित् सादृश्य होता भी है और नहीं भी होता है ।। ६-७॥
अहाकम्माणि भुंजंति, अण्णमण्णे सकम्मुणा । उवलित्तेति जाणिज्जा, अणुवलित्तेति वा पुणो ॥८॥
कठिन शब्दार्थ - अहाकम्माणि - आधाकर्मी आहार आदि, भुंजंति - खाते हैं तथा सेवन करते हैं, अण्णमण्णे - परस्पर, उवलित्ते - उपलिप्त, अणुवलित्ते - उपलिप्त नहीं होते । .. .
भावार्थ - जो साधु आधाकर्मी आहार खाते हैं तथा वस्त्र, पात्र, मकान आदि का सेवन करते हैं। वे परस्पर पाप कर्म से उपलिप्त नहीं होते हैं अथवा उपलिप्त होते हैं ये दोनों एकान्त वचन न कहे ।
एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जइ । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥९॥
भावार्थ - क्योंकि इन दोनों एकान्त वचनों से व्यवहार नहीं होता है, इसलिये इन दोनों एकान्त वचनों को कहना अनाचार सेवन जानना चाहिये।
विवेचन- भोजन, वस्त्र, पात्र तथा मकान आदि जो कुछ पदार्थ साधु को दान देने के उद्देश्य से बनाये जाते हैं वे आधाकर्म कहलाते हैं ऐसे आधाकर्म आहार आदि का उपभोग करने वाला साधु कर्म से उपलिप्त होता ही है ऐसा एकान्त वचन न कहना चाहिये तथा कर्मों से उपलिप्त नहीं होता है ऐसा भी नहीं कहना चाहिए क्योंकि यह एकान्त वचन है।
इस पाठ की शीलांकाचार्य कृति टीका में इस बात का कथन किया गया है कि १. द्रव्य आपत्तिप्रासुक आहारादि की प्राप्ति न होना २. क्षेत्र आपत्ति-अटवी (जंगल) में आहारादि की प्राप्ति न होना ३. काल आपत्ति-दुर्भिक्ष आदि के समय ४. भाव आपत्ति - रोग आदि के समय साधु-साध्वी आधाकर्मी आहारादि ग्रहण करें तो उसे कोई दोष नहीं लगता है।
किन्तु टीकाकार का उपरोक्त कथन आगम के कई जगह के मूल पाठ से मेल नहीं खाता है। अपितु मूल पाठ से विपरीत जाता है। यथा - आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंन्ध में साधु-साध्वी के लिए बनाया हुआ (आधाकर्म) खरीदा हुआ आदि दोष युक्त अशन, पान, खादिम, स्वादिम और वस्त्र, पात्र, मकान आदि साधारणतया तथा पुरुषान्तर कृत (दूसरों को सुपुर्द किया हुआ) होने पर भी लेने का पूर्ण निषेध किया गया है तथा सूयगडांग सूत्र अध्ययन ९ की गाथा १४ एवं अध्ययन ११ गाथा १३, १४, १५ में भी आधाकर्म आदि का पूर्ण निषेध किया है। १७ वें तथा १८ वें अध्ययन में भी सदोष आहार भोगने का निषेध किया है। इसी सूत्र का उल्लेख करते हुए अध्ययन एक उद्देशक ३ गाथा १ के वर्णन से भी यह स्पष्ट है कि पूति कर्म (आधाकर्म का जिसमें अंश भी मिल गया हो) आहारादि का सेवन करने वाला दो पक्षों (साधु और गृहस्थ) का सेवन करता है। अर्थात् वेष से तो वह साधु है और
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