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________________ अध्ययन ५ क्योंकि जब कोई स्थिर आत्मा है ही नहीं तब फिर बन्ध और मोक्ष किसका हो सकता है ? अतः ये दोनों ही मान्यताओं को मौनीन्द्रमत से विरुद्ध और अनाचार जानना चाहिये । पदार्थ कथञ्चित नित्य और कथञ्चित अनित्य हैं यह पक्ष ही युक्तियुक्त और मौनीन्द्रसम्मत होने के कारण ग्राह्य है। सामान्य अंश को लेकर सभी पदार्थ नित्य हैं और प्रतिक्षण बदलने वाले विशेषांश को लेकर सभी पदार्थ अनित्य है। इस प्रकार उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप जो अर्हद्दर्शनसम्मत पदार्थ का स्वरूप है वही ठीक है। अतएव कहा है कि घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयं । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥ अर्थात् किसी राजकन्या के पास एक सोने का घड़ा था । राजा ने सोनार से उस घड़े को गलवा कर अपने राजकुमार के लिये मुकुट बनवाया । यह जान कर राजकन्या को दुःख हुआ क्योंकि उस बिचारी का घड़ा नष्ट हो गया और राजकुमार को बड़ा हर्ष हुआ क्योंकि उसको मुकुट की प्राप्ति हुई परन्तु उस राजा को न तो हर्ष ही हुआ और न शोक ही हुआ क्योंकि उसका सुवर्ण तो ज्यों का त्यों बना ही रह गया। वह चाहे घंट के रूप में रहे अथवा मुकुट के रूप में। यदि पदार्थ एकान्त नित्य हो तो राजकन्या को शोक क्यों होना चाहिये एवं यदि एकान्त अनित्य हो तो राजकुमार को हर्ष भी क्यों हो सकता है ? तथा राजा को हर्ष और शोक दोनों ही न हुए ऐसा भी क्यों होता ? अतः पदार्थ कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है यह पक्ष ही सत्य है। ऐसा मानने पर घड़े को नष्ट हुआ जान कर राजकन्या को दुःख होना और नवीन मुकुट होना समझ कर राजकुमार को हर्ष होना तथा सोना का सोना ही रहना जानकर राजा को मध्यस्थ होना ये सब बातें बन जाती हैं अतः एकान्त अनित्यता और एकान्त नित्यता को व्यवहार विरुद्ध तथा अनाचार जानना चाहिये ।। २-३ ॥ समुच्छिर्हिति सत्थारो, सव्वे पाणा अणेलिसा । गठिगा वा भविस्संति, सासयंति व णो वए ॥ ४ ॥ १३१ Jain Education International कठिन शब्दार्थ- समुच्छिहिंति - उच्छिन्न (क्षय) होंगे, सत्यारो - शास्ता - सर्वज्ञ, अणेलिसा - अनीदृश, गंठिगा - ग्रंथिक ( कर्मबंधन से युक्त ) । भावार्थ- सर्वज्ञ तथा उनके सिद्धान्त को जानने वाले सभी भव्य जीव सिद्धि को प्राप्त करेंगे । सभी प्राणी परस्पर विशदृश हैं तथा सभी प्राणी कर्म बन्धन से युक्त रहेंगे एवं तीर्थङ्कर सदा स्थायी रहते हैं इत्यादि एकान्त वाक्य नहीं बोलने चाहिये । नोट - ऐसा एकान्त वचन क्यों नहीं बोलना चाहिए इसका स्पष्टीकरण आगे विवेचन में किया जायेगा । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जइ । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ।। ५॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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