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________________ १३० श्री सूयगडांग सूत्र तस्कंध २ .. कठिन शब्दार्थ - अणाइयं - अनादि, परिण्णाय - जानकर, अणवदग्ग - अर्थात् जिसका अवदन (अन्त) न हो उसे अनावदन कहते हैं अर्थात् अनन्त, सासयं - शाश्वत (नित्य), असासए - अशाश्वत, दिढेि - दृष्टि को। भावार्थ - विवेकी पुरुष इस जगत को अनादि और अनन्त जान कर इसे एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य न माने । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जइ । एएहिं दोहिं ठाणेहि, अणायारं तु जाणए ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - ववहारो - व्यवहार । भावार्थ - एकान्त नित्यता और एकान्त अनित्यता इन दोनों पक्षों से जगत् का व्यवहार नहीं चल सकता है इसलिए इन दोनों पक्षों के आश्रय को अनाचार सेवन जानना चाहिए। विवेचन - संसार में जितने भी पदार्थ हैं सभी कथंचित् नित्य और कथञ्चित् अनित्य हैं परन्तु ऐसा पदार्थ नहीं है जो एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य हो। ऐसी दशा में किसी भी पदार्थ को एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य मानना अनाचार का सेवन करना है। इस आर्हत् आगम के सिद्धान्तानुसार सभी पदार्थ सामान्य और विशेष एतदुभयात्मक हैं इसलिए वे सामान्य अंश को लेकर नित्य और विशेष अंश को लेकर अनित्य हैं अतः सभी नित्यानित्यात्मक हैं यह जानना आचार का सेवन समझना चाहिये। ऐसी मान्यता युक्तियुक्त होने पर भी अन्यदर्शनी स्वीकार नहीं करते हैं किन्तु एकान्त पक्ष का आश्रय लेकर वे किसी पदार्थ को एकान्त नित्य तथा किसी को एकान्त अनित्य कहते हैं। सांख्यवादी कहता है कि-"पदार्थों की न तो उत्पत्ति होती है और न विनाश ही होता है अतः आकाश आदि सभी पदार्थ एकान्त नित्य हैं ।" एवं बौद्ध समस्त पदार्थों को निरन्वय क्षणभङ्गुर मान कर एकान्त अनित्य कहता है । वस्तुतः ये दोनों ही मिथ्यावादी हैं क्योंकि जगत् की कोई भी वस्तु एकान्त नित्य नहीं है पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश प्रत्यक्ष देखा जाता है और उनकी नवीनता तथा पुराणता भी प्रत्यक्ष देखी जाती है। जगत् का व्यवहार भी इसी तरह का है। लोग कहते हैं कि यह वस्तु नई है और यह पुरानी है, एवं यह वस्तु नष्ट हो गई अतः लोक में एकान्त नित्यता का व्यवहार भी नहीं देखा जाता है। एवं यह आत्मा यदि उत्पत्ति विनाश रहित सदा एक रूप एक रस रहने वाला कूटस्थ नित्य है तो इसका बन्ध और मोक्ष नहीं हो सकता है फिर दीक्षा ग्रहण करने और शास्त्रोक्त नियमों को पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं हो सकती है अतः पारलौकिक विषयों में भी एकान्त नित्यतावाद सम्मत नहीं है। जिस तरह यह एकान्त नित्यतावाद अयुक्त और लौकिक तथा पारलौकिक व्यवहारों से विरुद्ध है इसी तरह एकान्त अनित्यतावाद भी लोक से विरुद्ध है। यदि आत्मा आदि समस्त पदार्थ एकान्त अनित्य अर्थात् एकान्त क्षणिक हैं तो लोग भविष्य में उपभोग करने के लिये घरदारादि तथा धन धान्यादि पदार्थों का संग्रह क्यों करते हैं ? तथा बौद्धगण दीक्षा ग्रहण और विहार आदि क्यों करते हैं ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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