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अध्ययन ५
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आवश्यकता बताई है तथा दूसरे श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन के अन्त में मनुष्य को पण्डित बनने की आवश्यकता कही है अत: इस गाथा के द्वारा यह बताया जाता है कि मनुष्य ब्रह्मचर्य्य धारण करने से ही ज्ञान को प्राप्त करने में तथा पण्डित बनने में समर्थ हो सकता है अन्यथा नहीं । जिसमें सत्य, तप, जीवदया और इन्द्रियों का निरोध किया जाय ऐसे कार्य्य को ब्रह्मचर्य्य कहते हैं तथा इन विषयों का वर्णन करने वाला जो आगम है वह भी ब्रह्मचर्य्य कहा जाता है इसलिए सत्य, तप, जीवदया और इन्द्रियनिरोध का वर्णन करने वाला यह जैनेन्द्र प्रवचन भी ब्रह्मचर्य है इसलिये इस जैनेन्द्र प्रवचनरूप ब्रह्मचर्य को स्वीकार करके विवेकी पुरुष कभी भी सावध अनुष्ठान न करे यह शास्त्रकार उपदेश देते हैं । यह जैनेन्द्र प्रवचन सम्यग् ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्ररूप मोक्षमार्ग का उपदेशक है. इसलिये इसमें कहे हुए पदार्थों को सम्यक् और उसके अनुसार आचरण को सम्यक् (शुद्ध) आचरण तथा अन्य दर्शनोक्त पदार्थों को मिथ्या तथा उसमें कहे हुए कुमन्तव्यों को मिथ्या आचार जानना चाहिये। इस जैनेन्द्र आगम में कहा हुआ सम्यग्दर्शन तत्त्व अर्थ के श्रद्धान का नाम है और जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष का नाम तत्त्व है एवं धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव और काल का नाम द्रव्य है । द्रव्य, नित्य और अनित्य उभय स्वभाव वाले होते हैं । अथवा सामान्यविशेषात्मक अनाद्यनन्त यह जो चतुर्द्दश रज्जुस्वरूप लोक है इसको तत्त्व कहते हैं और उसमें श्रद्धान का नाम सम्यग्दर्शन है । ज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन: पर्य्यायज्ञान और केवलज्ञान के भेद से पाँच प्रकार का है। चारित्र, सामायिक, छेदोपस्थानीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात के भेद से पांच प्रकार का है । अथवा मूल गुण और उत्तर गुण के भेद से चारित्र अनेक प्रकार का है । इस प्रकार सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को बताने वाला यह जैनेन्द्र आगम ही वस्तुतः ब्रह्मचर्य्य है । उसको प्राप्त करके मनुष्य को अनाचार का सेवन न करना चाहिये यह शास्त्रकार उपदेश देते हैं।
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ब्रह्मचर्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार हैं
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"ब्रह्मणि, आत्मनि, चरति, इति, ब्रह्मचर्यं "
अर्थ - आत्मा के स्वरूप में रमण करने ( विचरण करने) को ब्रह्मचर्य कहते हैं। ब्रह्मचर्य का माहात्म्य बताते हुए कहा है ।
सत्यं ब्रह्म, तपो ब्रह्म, ब्रह्म इन्द्रियनिग्रहः ।
सर्वभूतदया ब्रह्म, एतद् ब्रह्मलक्षणम् ॥ १ ॥
अर्थ- ब्रह्म शब्द का अर्थ है - सत्य, तप, इन्द्रिय निग्रह, (पांच इन्द्रियों के विषय विकारों को रोकना) तथा जगत् के समस्त जीवों पर दया करना यह ब्रह्म-आत्मा एवं परमात्मा का लक्षण है। अणाइयं परिण्णाय, अणवदग्गेति वा पुणो । सासयमसास वा, इइ दिहिं ण धारए ॥ २॥
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