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________________ आचारश्रुत नामक पांचवाँ अध्ययन उत्थानिका - इस पांचवें अध्ययन का नाम आचारश्रुत है। जब तक साधक सम्पूर्ण अनाचारों (आचरण नहीं करने योग्य बातों) का त्याग करके शास्त्रोक्त ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप आचार, वीर्याचार इन पांच आचारों में स्थिर होकर उनका पालन नहीं करता तब तक वह सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग का सम्यक् आराधक नहीं हो सकता है। जो बहुश्रुत, गीतार्थ, जिनोपदिष्ट सिद्धान्तों का सम्यग् ज्ञाता नहीं है, वह अनाचार और आचार का विवेक नहीं कर सकता है। अत: आचार विराधना कर सकता है, आचार श्रुत का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है, किन्तु उक्त आचार का सम्यक् परिपालन हो सके इसके लिए अनाचार का निषेधात्मक रूप से वर्णन इस अध्ययन में किया गया है। इसी कारण से इस अध्ययन का नाम अनाचार श्रुत रखा है। जो आचार इस अध्ययन में कहा गया है वह सब अनगारों (मुनियों) से सम्बन्धित है, इसलिए किन्हीं आचार्यों के मतानुसार इस अध्ययन का नाम 'अनगार श्रुत' भी है। इस अध्ययन में दृष्टि, श्रद्धा, प्ररूपणा, मान्यता और वाणी का प्रयोग आदि से सम्बन्धित .. अनाचारों का निषेध रूप से निर्देश करते हुए इनसे सम्बन्धित आचारों का भी वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम लोक, अलोक, कर्मबन्ध, कर्म विच्छेद, विसदृिशता, आधाकर्म दोष युक्त आहारादि के सेवन से कर्म बन्ध, पांच शरीरों की समानता आदि के सम्बन्ध में कथन किया गया है। तत् पश्चात् • जीव अजीव, पुण्य-पाप आदि की नास्तित्व प्ररूपणा (श्रद्धा) को अनाचार बता कर आचार के विषय में इनके अस्तित्व की श्रद्धा-प्ररूपणा करने का निर्देश किया गया है और अन्त में साधु के द्वारा एकान्त वाद प्रयोग, मिथ्याधारणा बता कर उसका निषेध किया गया है। इस सारे अध्ययन का उद्देश्य यह है कि साधु आचार और अनाचार का सम्यग् ज्ञाता होकर अनाचार के त्याग करने में और आचार का पालन करने में निपुण हो तथा कुमार्ग को छोड़कर सुमार्ग पर चलने वाले पथिक (मुसाफिर) की तरह समस्त अनाचार मार्गों से दूर रह कर। आचार मार्ग पर चलकर अपने अभीष्ट लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करे। आदाय बंभचेरै च, आसुपण्णे इमं वइं। अस्सिं धम्मे अणायारं, णायरेज कयाइ वि ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - बंभचेरै - ब्रह्मचर्य को, आसुपण्णे - आशुप्रज्ञ, अणायारं-अनाचार का, ण - नहीं, आयरेज - सेवन करे। भावार्थ - सत् और असत् का ज्ञाता पुरुष इस अध्ययन के वाक्य को तथा ब्रह्मचर्य को धारण करके कभी भी इस धर्म में अनाचार का सेवन न करे । विवेचन - इस सूत्रकृताङ्ग सूत्र के आदि में श्री तीर्थंकर देव ने प्राणियों को ज्ञान प्राप्त करने की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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