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________________ १३२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ भावार्थ - क्योंकि इन दोनों एकान्तमय पक्षों से लोक में व्यवहार नहीं होता है अतः इन दो पक्षों का आश्रय लेना अनाचार सेवन जानना चाहिये । विवेचन - तीर्थ के प्रवर्तक सर्वज्ञ तीर्थकर और उनके शासन को मानने वाले भव्य जीव सब के सब क्षय अथवा सिद्धि को प्राप्त होंगे, उस समय यह जगत् भव्य जीवों से रहित हो जायगा क्योंकि काल अनन्त है और जगत् में नये जीव की उत्पत्ति नहीं होती है इसलिये मुक्ति होते-होते जब समस्त भव्य जीवों की मुक्ति हो जायगी तो भव्य जीवों का अवश्य इस जगत् से उच्छेद हो जायगा। नये भव्य जीव उत्पन नहीं होते और पुराने सभी मोक्ष में चले जायगे फिर भव्य जीव इस जगत् में सदा नहीं रह सकते यह एकान्तमय वचन कभी नहीं कहना चाहिये इसी प्रकार सभी प्राणी कर्म बन्धन में ही पड़े रहेंगे, यह भी एकान्त वचन नहीं कहना चाहिये तथा तीर्थकर सदा स्थायी ही रहेंगे उनका क्षय कभी नहीं होगा यह भी नहीं कहना चाहिये। इस प्रकार जो यहां एकान्त वचनों के कहने का निषेध किया जाता है इसका कारण यह है किजैसे भविष्य काल का अन्त नहीं है उसी तरह भव्य जीवों का भी अन्त नहीं है इसलिये जैसे भविष्य काल का उच्छेद असम्भव है इसी तरह सम्पूर्ण भव्य जीवों का उच्छेद भी असम्भव है। यदि भव्य जीवों का उच्छेद सम्पूर्णरूपेण मान लिया जाय तो वे अनन्त नहीं हो सकते हैं अतः सम्पूर्ण भव्य जीवों की मुक्ति होने पर उनसे जगत् को खाली बताना असंगत है। इसी तरह तीर्थंकरों का क्षय बताना भी अयुक्त है क्योंकि-क्षय का कारण कर्म है वह सिद्धों में नहीं है फिर उनका क्षय किस तरह हो सकता है ? यदि भवस्थ केवली की अपेक्षा से उच्छेद होना बताते हो तो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि भवस्थ केंवली भी प्रवाह की अपेक्षा से अनादि और अनन्त हैं अतः उनका भी सम्पूर्णरूपेण इस जगत् में अभाव सम्भव नहीं है। वस्तुतः भवस्थ केवली सिद्धि को प्राप्त होते हैं इसलिये वे शाश्वत नहीं है तथा प्रवाह की अपेक्षा से वे सदा रहते हैं इसलिये शाश्वत भी हैं अतः भवस्थ केवली कथञ्चित् शाश्वत और कथञ्चित् अशाश्वत हैं यह अनेकान्त वचन ही विवेकी को कहना चाहिये । इसी तरह जगत् के समस्त . प्राणियों को परस्पर विलक्षण कहनां भी ठीक नहीं है क्योंकि-सभी प्राणिवर्गों का जीव समानरूप से उपयोग वाला और असंख्य प्रदेशी तथा अमूर्त है इसलिये वे कथञ्चित् सदृश भी हैं और वे भिन्न-भिन्न कर्म, गति, जाति, शरीर और अंगोपांग से युक्त हैं इसलिये कथंचित् विलक्षण भी हैं। एवं कोई जीव अधिक वीर्य्य वाले होते हैं इस कारण वे कर्म ग्रन्थि का भेदन कर देते हैं और कोई अल्पपराक्रमी भेदन नहीं कर सकते हैं इसलिये एकान्त रूप से सभी को कर्म ग्रन्थि में पड़े रहना नहीं कहा जा सकता है। अतः कोई कर्म ग्रन्थि का भेदन करने वाले और कोई न करने वाले होते हैं यही कहना शास्त्र सम्मत समझना चाहिये ।। ४-५॥ जे केइ खुद्दगा पाणा, अदुवा संति महालया। सरिसं तेहिं वेति, असरिसंति य णो वदे ॥६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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