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________________ अध्ययन ३ १०५ पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणिए एत्थ णं मेहुणवत्तियाए णामं संजोगे समुप्पज्जइ, ते दुहओवि सिणेहं संचिण्णंति, तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताए विउद्भृति, ते जीवा माओउयं पिउसुक्कं तं तदुभयं संसर्ल्ड कलुस किव्विसं तं पढमत्ताए आहारमाहारेंति, तओ पच्छा जं से माया णाणाविहाओ रसविहीओ आहारमाहारेंति, तओ एगदेसेणं ओय-माहारेंति, आणुपुव्वेण वुड्डा पलिपागमणुपवण्णा तओ कायाओ अभिणिवट्टमाणा इत्यिं वेगया जणयंति, पुरिसं वेगया जणयंति, णपुंसगं वेगया जणयंति, ते जीवा डहरा समाणा माउक्खीरं सप्पिं आहारेंति, आणुपुव्वेणं वुड्डा ओयणं कुम्मासं तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरेऽवि यणं तेसिंणाणाविहाणं मणुस्सगाणं कम्मभूमगाणं, अकम्मभूमगाणं, अंतरद्दीवगाणं, आरियाणं, मिलक्खूणं सरीरा णाणावण्णा भवंतीतिमक्खायं ॥५६॥ ... कठिन शब्दार्थ - अंतरदीवगाणं - अंतरद्वीपज, आरियाणं- आर्य, मिलक्खुयाणं - म्लेच्छ, मेहुणवत्तियाए - मैथुन प्रत्ययिक (हेतुक), सिणेह - स्नेह का, कलुसं - कलुष-मलिन, किब्बिसंकिल्विष-घृणित, ओयं - ओज, आहारेंति - आहार करते हैं, पलि-पागमणुपवण्णा - परिपाक होने पर, माउक्खीरं - माता के दूध, सप्पिं - घृत का, ओयणं- ओदन का, कुम्मासं - कुल्माष का । भावार्थ - वनस्पतिकाय के जीवों का वर्णन करके अब त्रसकाय के जीवों का वर्णन किया जाता है । त्रसकाय के जीव, नारक, तिर्यक्, मनुष्य और देवता इन भेदों के कारण चार प्रकार के होते हैं । इनमें नारक जीव प्रत्यक्ष नहीं देखे जाते हैं फिर भी वे अनुमान से जाने जाते हैं । वे अपने पापकर्म का फल भोगने वाले कोई जीव विशेष हैं। उन जीवों का आहार एकान्त अशुभ पुद्गलों का बना हुआ होता है वे ओज आहार को ग्रहण करते हैं कवलाहार को नहीं । वर्तमान समय में देवता भी प्रायः अनुमान से ही जाने जाते हैं । वे भी कवलाहार नहीं लेते किन्तु वे एकान्त शुभ पुद्गलों का बना हुआ रोम आहार ही लेते हैं। ___ रोम आहार दो प्रकार का है, एक आभोगकृत और दूसरा अनांभोगकृत । अनाभोगकृत आहार तो प्रति समय होता रहता है परन्तु आभोगकृत आहार जघन्य चतुर्थभक्त और उत्कृष्ट ३३ हजार वर्षकृत होता है। . नारक और देवता से भिन्न त्रस जीव तिर्यक् और मनुष्य हैं । तिर्यक् जीवों से मनुष्य श्रेष्ठ होता है अतः पहले उसी का वर्णन किया जाता है । मनुष्य जाति के जीव कर्मभूमि, अकर्मभूमि और अन्तर्वीप में निवास करते हैं । इनमें कोई वीतराग के धर्म में श्रद्धा रखने वाले आर्य्य होते हैं और कोई पाप कर्म में आसक्त अनार्य होते हैं । इनकी उत्पत्ति के विषय में संक्षेप से यह जानना चाहिये कि-स्त्री पुरुष या नपुंसक की उत्पत्ति के बीज भिन्न-भिन्न होते हैं एक नहीं । स्त्री का शोणित और पुरुष का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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