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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
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आश्रय मिलता है उसी ओर लता (बेलड़ी) जाती है तथा अनुकूल आहार मिलने पर वनस्पति की वृद्धि होती है और न मिलने पर उसमें कृशता (म्लानता) देखी जाती है। इन सब लक्षणों को देखने से 'वनस्पति में जीवत्व सिद्ध होता है क्योंकि आहार के बिना किसी भी जीव की स्थिति और संवृद्धि (विकास) नहीं हो सकती है इसलिये आहार की विविध प्रक्रिया भी यहाँ बतलाई गयी है। जो वनस्पतिकायिक जीव जिस पृथ्वी आदि की योनि में उत्पन्न होता है वह उसी में स्थित रहता है और उसी में वृद्धि को प्राप्त होता है। मुख्यतया वह उसी के स्नेह (स्निग्ध रस) का आहार करता है। इसके अतिरिक्त वह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पतिकाय के शरीर का आहार करता है। पूर्वोक्त वनस्पति कायिक जीव जब अपने से संसृष्ट या सन्निकट किसी त्रस या स्थावर जीवों का आहार करते हैं। तब वे पूर्व भुक्त त्रस या स्थावर और जीव के शरीर को उसका रस चूसकर अचित्त कर डालते हैं। तत्पश्चात् त्वचा द्वारा भुक्त पृथ्वी आदि या त्रस शरीर को वे अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। यही समस्त वनस्पतिकायिक जीवों के आहार की प्रक्रिया है। साथ ही यह भी जान लेना चाहिए कि, जो वनस्पति जिस प्रकार के वर्ण गन्ध, रस. स्पर्श वाले जल भमि आदि का आहार लेती है, उसी के अनुसार उसका वर्णादि बनता है, या आकार-प्रकार आदि बनता है। जैसे आम की एक ही प्रकार की . वनस्पति होते हुए भी विभिन्न प्रदेश की मिट्टी, जल, वायु एवं बीज आदि के कारण विभिन्न प्रकार के वर्णादि से युक्त विविध आकार-प्रकार से विशिष्ट नाना शरीरों को धारण करता है। इसी प्रकार अन्य वनस्पतियों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए।
स्नेह - प्रस्तुत प्रकरण में स्नेह शब्द का अर्थ है - शरीर का सार या स्निग्ध तत्त्व। जिसे अमुकअमुक वनस्पतिकायिक जीव पी लेता है या ग्रहण कर लेता है। ___नोट - अनेक वृक्ष या वनस्पतियाँ इस प्रकार की पायी जाती हैं जो मनुष्य व अन्य त्रस प्राणियों को अपने निकट आने पर खींचकर उनका आहार कर लेती है।
"सिणेहोणाम सरीरसारो, तं आपिबंति" (चूर्णि) स्नेहं स्निग्धभावमाददते (वृत्ति) . अर्थ - शरीर के सार को स्नेह कहते हैं उस स्नेह (स्निग्ध भाव) को वनस्पति खींच लेती है।
'ते दुहओ वि सिणेहं' सिणेहो नामा अन्योऽन्यगात्र संस्पर्शः। यदा पुरुषस्नेहः शुक्रान्तः नार्योदरमनुप्रविश्य नार्योजसा सह संयुज्यते तदा सो सिणेहो क्षीरोदकवत् अण्णमण्णं 'संचिणति' गृह्णातीत्यर्थः।
। अर्थात् - स्नेह का अर्थ पुरुष और स्त्री के परस्पर गात्रसंस्पर्श से जनित पदार्थ ।..... जब पुरुष का स्नेह- शुक्र नारी के उदर में प्रविष्ट होकर नारी के ओज (रज) के साथ मिलता है, तब वह स्नेह दूध
और पानी की तरह परस्पर एक रस हो जाता है, उसी स्नेह को गर्भस्थ जीव सर्वप्रथम ग्रहण करता है। ___ अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं मणुस्साणं तंजहा-कम्मभूमगाणं, अकम्मभूमगाणं, अंतरदीवगाणं, आरियाणं मिलक्खुयाणं, तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए
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