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________________ - अध्ययन ३ १०३ योनिक वृक्ष (अध्यारुह तृण औषधि तथा हरित आदि) अनेक विध उदक योनि में उत्पन्न उदक से लेकर पुष्कराक्षिभग तक की वनस्पति आदि। बीजकायिक जीव चार प्रकार के होते हैं - अग्रबीज (जिसके अग्रभाग में बीज हो जैसे मिल, ताल, आम, गेहूं, चावल आदि)। मूल बीज (जो मूल से उत्पन्न होते हैं जैसे - अदरक आदि)। पर्वबीज (जो वनस्पति पर्व- गांठ से उत्पन्न होते हैं जैसे ईख-गन्ना आदि)। स्कन्धबीज(जो स्कन्ध से उत्पन्न होते हैं जैसे सल्लकी आदि)। ___उत्पत्ति के कारण - पूर्वोक्त विविध प्रकार की वनस्पतियों की योनि (मुख्य उत्पत्ति स्थान) भिन्न-भिन्न हैं। पृथ्वी, वृक्ष, जल, बीज आदि में से जो जिस वनस्पति की योनि है वह वनस्पति उसी योनि से उत्पन्न कहलाती है। वृक्ष आदि जिस वनस्पति के लिये जो प्रदेश उपयुक्त होता है उसी प्रदेश में वह वृक्षादि वनस्पति उत्पन्न होती है। अन्यत्र नहीं तथा जिसकी उत्पत्ति के लिये जो काल, भूमि, जल, आकाश प्रदेश और बीज आदि अपेक्षित हैं। उनमें से किसी एक के भी न होने पर वे उत्पन्न नहीं होती है। तात्पर्य यह है कि वनस्पति कायिक विविध प्रकार के जीवों की उत्पत्ति के लिये भिन्न-भिन्न काल, भूमि, जल, बीज आदि तो बाह्य निमित्त कारण हैं ही, साथ ही अन्तरंग कारण कर्म भी एक अनिवार्य कारण है। कर्म से प्रेरित होकर ही विविध वनस्पतिकायिक जीव नानाविध योनियों में उत्पन्न होते हैं कभी यह पृथ्वी से वृक्ष के रूप में उत्पन्न होती है, कभी पृथ्वी से उत्पन्न हुए वृक्ष से वृक्ष के रूप में उत्पन्न होती है, कभी वृक्ष योनिक वृक्ष के रूप में उत्पन्न होती है और कभी वृक्ष योनिक वृक्षों से मूल, कन्दफल, त्वचा, पत्र, बीज, शाखा, बेल स्कन्ध आदि रूप में उत्पन्न होती है इसी तरह कभी वृक्ष योनिक वृक्ष से अध्यारुह आदि चार रूपों में उत्पन्न होती है कभी नानायोनिक पृथ्वी से तृणादि चार रूपों में कभी औषधि आदि चार रूपों में तथा कभी हरित आदि चार रूपों में उत्पन्न होती है। कभी वह विविध योनिक पृथ्वी से सीधे आय, वाय से लेकर कूट तक की वनस्पति के रूप में उत्पन्न होती है। कभी वह उदक योनिक उदक में वृक्ष आदि चार रूपों में उत्पन्न होती है। कभी उदक से सीधे ही उदक, आवक से लेकर पुष्कराक्षिभग नाम के वनस्पति के रूप में उत्पन्न होती है। यद्यपि पहले जिनके चार-चार आलापक बताये गये थे। उनके अन्तिम उपसंहार रूप सूत्र में तीन-तीन आलापक बताये गये हैं (इसका तत्त्व केवलीगम्य है) अभ्यारुह - वृक्ष आदि के ऊपर एक के बाद एक चढ़ कर जो उग जाते हैं उन्हें अध्यारुह कहते हैं। इन अध्यारहों की उत्पत्ति वृक्ष, तृण, औषधि और हरित आदि के रूप में यहाँ बताई गयी है। स्थिति, संवृद्धि एवं आहार की प्रक्रिया - प्रस्तुत सूत्रों में पूर्वोक्त अनेक प्रकार की वनस्पतियों की उत्पत्ति एवं संवृद्धि का वर्णन किया गया है उसका प्रधान प्रयोजन यह है कि इनमें जीव (आत्मा) का अस्तित्व सिद्ध करना है यद्यपि बौद्ध दर्शन में इन स्थावरों को जीव नहीं माना जाता है तथापि जीव का जो लक्षण है उपयोग, वह इन वृक्षादि में भी पाया जाता है। यह प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि जिधर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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