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श्री सयगडांग सत्र तस्कंध २
वीर्य दोनों ही दोष रहित हों और शोणित की अपेक्षा शुक्र की मात्रा अधिक हो तो पुरुष की उत्पत्ति होती है परन्तु यदि शोणित अधिक और शुक्र कम हो तो स्त्री की उत्पत्ति होती है । यदि स्त्री का शोणित और पुरुष का शुक्र दोनों ही समान मात्रा में हों, तो नपुंसक की उत्पत्ति होती है इसी तरह माता की दक्षिण कुक्षि से पुरुष की और वाम कुक्षि से स्त्री की तथा दोनों ही कुक्षि से नपुंसक की उत्पत्ति होती है।
जब किसी जीव की अपने कर्मानुसार मनुष्ययोनि में उत्पत्ति होने वाली होती है तो उसके कर्म के अनुरूप स्त्री और पुरुष का सुरत सुख की इच्छा से संयोग होता है । वह संयोग उस जीव की उत्पत्ति का कारण उसी तरह होता है जैसे दो अरणि काष्ठों का संयोग अग्नि की उत्पत्ति का कारण होता है । इस प्रकार स्त्री और पुरुष के परस्पर संयोग होने पर उत्पन्न होने वाला जीव कर्म से प्रेरित होकर तैजस
और कार्मण शरीर के द्वारा शुक्र और शोणित का आश्रय लेकर वहाँ उत्पन्न होता है । वह जीव पहले पहल उस शुक्र और शोणित के स्नेह का आहार करता है । जब स्त्री ५५ वर्ष की और पुरुष ७० वर्ष का हो जाता है तब उनमें सन्तान उत्पन्न करने की योग्यता नहीं रहती इसलिये उनके संयोग को विध्वस्तयोनि कहते हैं । इससे भिन्न जो अविध्वस्त योनि है यानी ५५ वर्ष से कम उम्र की स्त्री का ७० वर्ष से कम उम्र के पुरुष के साथ जो संयोग है वही सन्तान की उत्पत्ति का कारण है । एवं शुक्र और . शोणित भी बारह मुहूर्त तक ही सन्तानोत्पत्ति की शक्ति रखते हैं इसके पश्चात् वे शक्तिहीन और विध्वस्तयोनि कहलाते हैं । इस प्रकार स्त्री की कुक्षि में प्रविष्ट वह जीव, उस स्त्री के द्वारा आहार किये हुए पदार्थों के स्नेह का आहार करता है इस प्रकार वह प्राणी माता के आहारांश को ओज, मिश्र तथा लोम के द्वारा क्रमशः आहार करता हुआ वृद्धि को प्राप्त होता है । पश्चात् प्राणी माता के उदर से बाहर निकल कर पृथिवी पर जन्म ग्रहण करता है । प्राणी वर्ग अपने-अपने कर्मों के अनुसार स्त्री, पुरुष और नपुंसक रूप में उत्पन्न होते हैं किसी अन्य कारण से नहीं, यह जानना चाहिये । कोई कहते हैं कि "जो जीव पूर्वभव में स्त्री होता है वह परभव में भी स्त्री ही होता है तथा जो जीव पूर्वभव में पुरुष या नपुंसक होते हैं वे पुरुष और नपुंसक ही होते हैं । इनके वेद का परिवर्तन कभी नहीं होता है।" वस्तुतः यह मत अज्ञानमूलक है क्योंकि कर्म की विचित्रता के कारण वेद का परिवर्तन होना स्वाभाविक है अतः जीव अपने कर्म के प्रभाव से कभी स्त्री और कभी पुरुष तथा कभी नपुंसक वेद को प्राप्त करता है, यही सत्य समझना चाहिये। ... ___गर्भ से निकल कर बालक पूर्व जन्म के अभ्यास के अनुसार आहार लेने की इच्छा करता है और वह माता के स्तन को पीकर जब वृद्धि को प्राप्त होता है तब नवनीत, दधि, भात आदि पदार्थों को खाता है । इसके पश्चात् वह अपने आहार के योग्य त्रस और स्थावर प्राणियों का आहार करता है । आहार किये हुए पदार्थों को पचाकर वह अपने रूप में मिला लेता है । प्राणियों के शरीर में जो रस, रक्त, मांस, मेद, हड्डी, मज्जा और शुक्र पाये जाते हैं ये सप्त धातु कहलाते हैं इन सप्त धातुओं की उत्पत्ति प्राणियों के द्वारा किये हुए आहारों से ही होती है ।। ५६ ॥
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