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________________ ७६ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 भी इसी तरह वर्णादि से रहित है किन्तु इतनी विशेषता है कि द्रव्यं की अपेक्षा जीवास्तिकाय अनन्त द्रव्य हैं। जीव अरूपी और शाश्वत है । गुण की अपेक्षा उपयोग गुण वाला है । शेष सारा वर्णन धर्मास्तिकाय के समान है । पुदगलास्तिकाय पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श सहित है । पुद्गलास्तिकाय रूपी अजीव शाश्वत यावत् अवस्थित है। द्रव्य की अपेक्षा अनन्त द्रव्य रूप है। क्षेत्र की अपेक्षा लोकप्रमाण है, काल की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय कभी नहीं थी ऐसा नहीं, किन्तु पुद्गलास्तिकाय भूतकाल में थी, वर्तमान में है और भविष्यत् काल में रहेगी, यावत् नित्य है। भाव की अपेक्षा पांच वर्ण वाली, दो गन्ध वाली, पांच रस वाली और आठ स्पर्श वाली है। गुण की अपेक्षा ग्रहण गुण वाली है। पांच गतियाँ कही गई हैं यथा-- नरक गति, तिर्यञ्चगति, मनुष्य गति, देवगति और सिद्धिगति । .. विवेचन - अस्तिकाय - यहाँ 'अस्ति' शब्द का अर्थ प्रदेश है और काय का अर्थ है 'राशि'। प्रदेशों की राशि वाले द्रव्यों को अस्तिकाय कहते हैं। अस्तिकाय पांच हैं - १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय ४. जीवास्तिकाय ५. पुद्गलास्तिकाय। १. धर्मास्तिकाय - गति परिणाम वाले जीव और पुद्गलों की गति में जो सहायक हो उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं। जैसे पानी, मछली की गति में सहायक होता है। २. अधर्मास्तिकाय - स्थिति परिणाम वाले जीव और पुद्गलों की स्थिति में जो सहायक (सहकारी) हो उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं। जैसे विश्राम चाहने वाले थके हुए पथिक के ठहरने में छायादार वृक्ष सहायक होता है। ३. आकाशास्तिकाय - जो जीवादि द्रव्यों को रहने के लिए अवकाश दे वह आकाशास्तिकाय है। ४. जीवास्तिकाय - जिसमें उपयोग और वीर्य दोनों पाये जाते हैं उसे जीवास्तिकाय कहते हैं। ५. पुद्गलास्तिकाय - जिस में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हों और जो इन्द्रियों से ग्राह्य हो तथा विनाश धर्म वाला हो वह पुद्गलास्तिकाय है। अस्तिकाय के पाँच पाँच भेद - प्रत्येक अस्तिकाय के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा से पांच पांच भेद हैं । धर्मास्तिकाय के पांच प्रकार - . १. द्रव्य की अपेक्षा धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है। २. क्षेत्र की अपेक्षा धर्मास्तिकाय लोक परिमाण अर्थात् सर्व लोकव्यापी है यानी लोकाकाश की तरह असंख्यात प्रदेशी हैं। ३. काल की अपेक्षा धर्मास्तिकाय त्रिकाल स्थायी है। यह भूत काल में रहा है। वर्तमान काल में विद्यमान है और भविष्यत् काल में भी रहेगा। यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, अक्षय एवं अव्यय है तथा अवस्थित है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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