________________
श्री स्थानांग सूत्र
१. आगम व्यवहार - केवलज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व और दशपूर्व का ज्ञान आगम कहलाता है। आगम ज्ञान से प्रवर्तित प्रवृत्ति निवृत्ति रूप व्यवहार आगम व्यवहार कहलाता है।
२. श्रुत व्यवहार - आचार प्रकल्प आदि ज्ञान श्रुत है। इससे प्रवर्ताया जाने वाला व्यवहार श्रुतव्यवहार कहलाता है। नव, दश, और चौदह पूर्व का ज्ञान भी श्रुत रूप है परन्तु अतीन्द्रिय अर्थ विषयक विशिष्ट ज्ञान का कारण होने से उक्त ज्ञान अतिशय वाला है और इसीलिये वह आगम रूप माना गया है।
३. आज्ञा व्यवहार - दो गीतार्थ साधु एक दूसरे से अलग दूर देश में रहे हुए हों और शरीर क्षीण हो जाने से वे विहार करने में असमर्थ हों। उन में से किसी एक के प्रायश्चित्त आने पर वह मुनि योग्य गीतार्थ शिष्य के अभाव में मति और धारणा में अकुशल अगीतार्थ शिष्य को आगम की सांकेतिक गूढ़ भाषा में अपने अतिचार दोष कह कर या लिख कर उसे अन्य गीतार्थ मुनि के पास भेजता है और उसके द्वारा आलोचना करता है। गूढ़ भाषा में कही हुई आलोचना सुन कर वे गीतार्थ मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संहनन, धैर्य, बल आदि का विचार कर योग्य गीतार्थ शिष्य को समझा कर भेजते हैं। यदि वैसे शिष्य का भी उनके पास योग न हो तो आलोचना का संदेश लाने वाले के द्वारा ही गूढ अर्थ में अतिचार की शुद्धि अर्थात् प्रायश्चित्त देते हैं। यह आज्ञा व्यवहार है।
४. धारणा व्यवहार - किसी गीतार्थ संविग्न मुनि ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा जिस दोष में जो प्रायश्चित्त दिया है। उसकी धारणा से वैसे दोष में उसी प्रायश्चित्त का प्रयोग करना धारणा व्यवहार है।
वैयावृत्य करने आदि से जो साधु गच्छ का उपकारी हो। वह यदि सम्पूर्ण छेद सूत्र सिखाने योग्य न हो तो उसे गुरु महाराज कृपा पूर्वक उचित प्रायश्चित्त पदों का कथन करते हैं। उक्त साधु का गुरु महाराज से कहे हुए उन प्रायश्चित्त पदों का धारण करना धारणा व्यवहार है।
५. जीत व्यवहार - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना का और संहनन धृति आदि का विचार कर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह जीत व्यवहार है। किसी गच्छ में कारण विशेष से सूत्र से अधिक प्रायश्चित्त की प्रवृत्ति हुई हो और दूसरों ने उसका अनुसरण कर लिया हो तो वह प्रायश्चित्त जीत व्यवहार कहा जाता है। अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा आगम से अविरुद्ध जो मर्यादा बांध दी है उससे प्रवर्तित व्यवहार जीत व्यवहार है।
भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशक ८ में भी इन पांच व्यवहारों का वर्णन किया गया है।
इन पाँच व्यवहारों में यदि व्यवहर्ता के पास आगम हो तो उसे आगम से व्यवहार चलाना चाहिए। आगम में भी केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान आदि छह भेद हैं। इनमें पहले केवल ज्ञान आदि के होते हुए उन्हीं से व्यवहार चलाया जाना चाहिए। पिछले मनःपर्याय ज्ञान आदि से नहीं। आगम के
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org