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________________ स्थान ५ उद्देशक २ '५५ दो गीतार्थ साधु एक दूसरे से अलग दूर देश में रहे हुए हों और शरीर क्षीण हो जाने से वे विहार करने में असमर्थ हों । उनमें से किसी एक को प्रायश्चित्त आने पर वह गीतार्थ शिष्य के अभाव में अगीतार्थ शिष्य को आगम की सांकेतिक गूढ भाषा में अपने अतिचार दोष कह कर या लिख कर उसे दूसरे गीतार्थ मुनि के पास भेजता है और उसके द्वारा आलोचना करता है । गूढ भाषा में कही हुई आलोचना सुन कर वे गीतार्थ मुनि उस संदेश लाने वाले के द्वारा ही गूढ भाषा में उस अतिचार का प्रायश्चित्त देते हैं । यह आज्ञा व्यवहार है । ४. धारणा व्यवहार - किसी गीतार्थ मुनि ने जिस दोष में जो प्रायश्चित्त दिया हो उसकी धारणा से वैसे दोष में उसी प्रायश्चित्त का प्रयोग करना धारणा व्यवहार है। ५. जीत व्यवहार - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना का और संहनन, धैर्य आदि का विचार कर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह जीत व्यवहार कहलाता है । अथवा - किसी गच्छ में कारण विशेष से सूत्र से अतिरिक्त प्रायश्चित्त की प्रवृत्ति हुई हो और दूसरों ने उसका अनुसरण कर लिया हो तो वह प्रायश्चित्त जीत व्यवहार कहा जाता है । अथवा अनेक गीतार्थ मुनियों ने मिल कर आगम से अविरुद्ध जो मर्यादा बांध दी है वह जीत व्यवहार कहलाता है । .. इन पांच व्यवहारों में से जब आगम हो तो आगम से व्यवहार करना चाहिए। जब आगम व्यवहारी न हों और श्रुतव्यवहारी हों तो श्रुत से व्यवहार करना चाहिए । जब श्रुत व्यवहारी न हो तो आज्ञा व्यवहार से प्रवृत्ति करनी चाहिए। इसी तरह आज्ञा व्यवहार के अभाव में धारणा व्यवहार से प्रवृत्ति करनी चाहिए और जब धारणा व्यवहार न हो किन्तु जीत व्यवहार हो तो जीत व्यवहार से प्रवृत्ति करनी चाहिए। आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत इन पांच व्यवहारों से व्यवहार करना चाहिए । इन पांच व्यवहारों में यथाक्रम से पहले पहले के अभाव में आगे आगे के व्यवहार से प्रवृत्ति करनी चाहिए। शिष्य प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! आगमबलिक यानी केवलज्ञानी आदि ज्ञानी श्रमण निम्रन्थों ने इन व्यवहारों का क्या फल बतलाया है ? शास्त्रकार उत्तर देते हैं कि इन पांच व्यवहारों में से जिस अवसर में और जिस समय जिस व्यवहार की आवश्यकता हो उस अवसर पर और उस समय उस व्यवहार का सर्वथा पक्षपात रहित होकर सम्यक् प्रकार से व्यवहार करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का आराधक होता है। विवेचन - परिज्ञा - वस्तु स्वरूप का ज्ञान करना और ज्ञान पूर्वक उसे छोड़ना परिज्ञा है। परिज्ञा के पाँच भेद हैं-१. उपधि परिज्ञा २. उपाश्रय परिज्ञा ३. कषाय परिज्ञा ४. योग परिज्ञा ५. भक्तपान परिज्ञा। - व्यवहार - मोक्षाभिलाषी आत्माओं की प्रवृत्ति निवृत्ति को एवं तत्कारणक ज्ञान विशेष को व्यवहार कहते हैं। व्यवहार के पाँच भेद हैं - १. आगम व्यवहार २. श्रुत व्यवहार ३. आज्ञा व्यवहार ४. धारणा व्यवहार ५. जीत व्यवहार। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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