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________________ ५४ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 हुए कर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप में व्यवस्थित किये जाते हैं वह सामुदानिकी क्रिया है। यह क्रिया मिथ्या दृष्टि से लगा कर सूक्ष्म सम्पराय गुण स्थान तक लगती है। ५.ईपथिकी क्रिया - उपशान्त मोह, क्षीण मोह और सयोगी केवली इन तीन गुण स्थानों में रहे हुए अप्रमत्त साधु के केवल योग कारण से जो सातावेदनीय कर्म बंधता है। वह ईर्यापथिकी क्रिया है। परिज्ञा पंचविहा परिण्णा पण्णत्ता तंजहा - उवहिपरिणा, उवस्सयपरिण्णा, कसायपरिण्णा, जोगपरिण्णा, भत्तपाणपरिण्णा । व्यवहार पंचविहे ववहारे पण्णत्ते तंजहा आगमे, सुए, आणा, धारणा, जीए । जहा से तत्य आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्टवेज्जा, णो से तत्थ आगमे सिया जहा से तत्थ सुए सिया सुएणं ववहारं पट्ठवेज्जा, णो से तत्थ सुए सिया एवं जाव जहा से तत्थ जाए सिया जीएणं ववहारं पट्टवेज्जा । इच्चेएहिं पंचहिं ववहारं पट्टवेज्जा आगमेणं जाव जीएणं । जहा जहा से तत्थ आगमे जाव जीए तहा तहा ववहारं पट्टवेज्जा । से किमाहु भंते ! आगमबलिया समणा णिग्गंथा । इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया जया जहिं जहिं तया तया तहिं तहिं अणिस्सिओवस्सियं सम्मं ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवइ॥२०॥ कठिन शब्दार्थ - एरिण्णा - परिज्ञा, उवहिपरिण्णा - उपधि परिज्ञा, उवस्सयपरिण्णा - उपाश्रय परिज्ञा, भत्तपाणपरिण्णा - भक्तपान परिज्ञा, ववहारे - व्यवहार, जीए - जीत, आगमबलियाआगम बलिक, अणिस्सि ओवस्सियं - सर्वथा पक्षपात रहित होकर, आणाए - आज्ञा का, आराहए - आराधक । भावार्थ - पांच प्रकार की परिज्ञा कही गई है यथा - उपधिपरिज्ञा यानी अशुद्ध वस्त्रादि का त्याग, उपाश्रय परिज्ञा यानी अशुद्ध उपाश्रय का त्याग, कषायपरिज्ञा यानी क्रोधादि कषाय का त्याग, योग परिज्ञा यानी अशुभ योगों का त्याग और भक्तपान परिज्ञा यानी अशुद्ध आहार पानी का त्याग करना। पांच प्रकार का व्यवहार कहा गया है यथा - आगम व्यवहार-जिससे यथार्थ अर्थ जाना जाय वह आगम कहलाता है। .. १..आगम व्यवहार - केवलज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वधारी, दशपूर्वधारियों के, लिए आगम व्यवहार होता है, इसीलिए ये आगम व्यवहारी कहलाते हैं । २. श्रुत व्यवहार - आचाराङ्ग आदि सूत्र श्रुत कहलाते हैं । इनके अनुसार प्रवृत्ति करना श्रुत व्यवहार कहलाता है। ३. आज्ञा व्यवहार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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