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________________ __ स्थान ५ उद्देशक २ ५३ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 २. आज्ञापनिका या आनायनी (आणवणिया) - जीव अथवा अजीव को आज्ञा देने से अथवा दूसरे के द्वारा मंगाने से लगने वाली क्रिया आज्ञापनिका या आनायनी क्रिया है। ३. वैदारिणी (वेयारणिया) - जीव अथवा अजीव को विदारण करने से लगने वाली क्रिया वैदारिणी क्रिया है। जीव अजीव के व्यवहार में व्यापारियों की भाषा में या भाव में असमानता होने पर दुभाषिया या दलाल जो सौदा करा देता है। उससे लगने वाली क्रिया भी वियारणिया क्रिया है। लोगों को ठगने के लिये कोई पुरुष किसी जीव अर्थात् पुरुष आदि की या अजीव रथ आदि की प्रशंसा करता है। इस वञ्चना (ठगाई) से लगने वाली क्रिया भी वियारणिया क्रिया है। ४. अनाभोग प्रत्यया - अनुपयोग से वस्त्रादि को ग्रहण करने तथा बरतन आदि को पूंजने से लगने वाली क्रिया अनाभोग प्रत्यया क्रिया है। ५. अनवकांक्षा प्रत्यया - स्व-पर के शरीर की अपेक्षा न करते हुए स्व-पर को हानि पहुंचाने से लगने वाली क्रिया अनवकांक्षा प्रत्यया क्रिया है। इस लोक और परलोक की परवाह न करते हुए दोनों लोक विरोधी हिंसा, चोरी, आर्तध्यान, रौद्रध्यान आदि से लगने वाली क्रिया अनवकांक्षा प्रत्यया क्रिया है। . क्रिया के पांच भेद - १. प्रेम प्रत्यया (पेज वत्तिया) २. द्वेष प्रत्यया ३. प्रायोगीकी क्रिया ४. सामुदानिकी क्रिया ५. ईर्यापथिकी क्रिया। - १. प्रेम प्रत्यया (पेज वत्तिया) - प्रेम (राग) यानि माया और लोभ के कारण से लगने वाली क्रिया प्रेम प्रत्यया क्रिया है। । दूसरे में प्रेम (राग) उत्पन्न करने वाले वचन कहने से लगने वाली क्रिया प्रेम प्रत्यया क्रिया कहलाती है। २. द्वेष प्रत्यया - जो स्वयं द्वेष अर्थात् क्रोध और मान करता है और दूसरे में द्वेष आदि उत्पन्न करता है उससे लगने वाली अप्रीतिकारी क्रिया द्वेष प्रत्यया क्रिया है। ३. प्रायोगिकी क्रिया - आर्तध्यान रौद्रध्यान करना, तीर्थंकरों से निन्दित सावध अर्थात् पाप जनक वचन बोलना तथा प्रमाद पूर्वक जाना आना, हाथ पैर फैलाना, संकोचना आदि मन, वचन, काया के व्यापारों से लगने वाली क्रिया प्रायोगिकी क्रिया है। ४. सामुदानिकी क्रिया - जिससे समग्र अर्थात् आठ कर्म ग्रहण किये जाते हैं वह सामुदानिकी क्रिया है। सामुदानिकी क्रिया देशोपघात और सर्वोपघात रूप से दो भेद वाली है। अनेक जीवों को एक साथ जो एक सी क्रिया लगती है। वह सामुदानिकी क्रिया है। जैसे नाटक, सिनेमा आदि के दर्शकों को एक साथ एक ही क्रिया लगती है। इस क्रिया से उपार्जित कर्मों का उदय भी उन जीवों के एक साथ प्रायः एक सा ही होता है। जैसे-भूकम्प वगैरह। जिससे प्रयोग (मन वचन काया के व्यापार) द्वारा ग्रहण किये हुए एवं समुदाय अवस्था में रहे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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