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स्थान ५ उद्देशक २ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 - अभाव में श्रुत से, श्रुत के अभाव में आज्ञा से, आज्ञा के अभाव में धारणा से और धारणा के अभाव में जीत व्यवहार से, प्रवृत्ति निवृत्ति रूप व्यवहार का प्रयोग होना चाहिए। देश काल के अनुसार ऊपर कहे अनुसार सम्यक् रूपेण पक्षपात रहित व्यवहारों का प्रयोग करता हुआ साधु भगवान् की आज्ञा का आराधक होता है।
जागृत, सुप्त, कर्म बंध व निर्जरा संजय मणुस्साणं सुत्ताणं पंच जागरा पण्णत्ता तंजहा - सहा, रूवा, गंधा, रसा, फासा । संजय मणुस्साणं जागराणं पंच सुत्ता पण्णत्ता तंजहा - सद्दा जाव फासा । असंजयमणुस्साणं सुत्ताणं वा जागराणं वा पंच जागरा पण्णत्ता तंजहा - सहा जाव फासा । पंचहिं ठाणेहिं जीवा रयं आइज्जति तंजहा - पाणाइवाएणं जाव परिग्गहेणं । पंचहिं ठाणेहिं जीवा रयं वर्मति तंजहा - पाणाइवायवेरमणेणं जाव परिग्गहवेरमणेणं।
उपघात, विशुद्धि पंचमासियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णस्स अणगारस्स कप्पंति पंच दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए पंच पाणगस्स । पंचविहे उवघाए पण्णत्ते तंजहा - उग्गमोवघाए, उप्पायणोवधाए, एसणोवघाए, परिकम्मोवघाए, परिहरणोवघाए । पंचविहा विसोही पण्णत्ता तंजहा - उग्गमविसोही, उप्पायणविसोही, एसणाविसोही, परिकम्मविसोही, परिहरणविसोही॥२१॥ .
कठिन शब्दार्थ - जागरा - जागृत, सुत्ताणं - सोते हुए के, जागराणं - जागते हुए के, रयं - कर्म.रूपी रज को, आइजति - ग्रहण करते हैं, वमंति - वमन करते हैं, भिक्खुपडिमं - भिक्षु प्रतिमा को, पडिवण्णस्स - अंगीकार करने वाले साधु को, दत्तीओ - दत्ति, उवधाए - उपघात, उग्गमोवधाएउद्गमोपघात, उप्पायणोवघाए - उत्पादनोपघात, एसणोवघाए - एषणोपघात, परिकम्मोवघाए - परिकर्मोपघात, विसोही- विशुद्धि, परिहरणोवघाए - परिहरणोपघात ।
भावार्थ - सोते हुए संयति मनुष्यों के अर्थात् साधुओं के पांच जागृत कहे गये हैं यथा - शब्द, रूपं, गंध, रस और स्पर्श । सुप्त अवस्था में ये स्वाभाविक शब्द आदि स्वतन्त्र रूप से प्रवृत्ति करते हैं इसलिए कर्मबन्ध के कारण होते हैं । जागते हुए संयती मनुष्यों के यानी साधुओं के शब्द यावत् स्पर्श ये पांच सुप्त यानी सोते हुए कहे गये हैं क्योंकि जागृत अवस्था में साधु महात्मा सब कार्य यतनापूर्वक करते हैं । इसलिए ये कर्मबन्ध के कारण नहीं होते हैं । असंयती मनुष्य सोते हुए हों अथवा जागते हुए हों उनके शब्द यावत् स्पर्श ये पांच सदा जागृत कहे गये हैं क्योंकि वे सुप्त और जागृत दोनों अवस्थाओं में प्रमादी हैं इसलिए ये पांचों सदा कर्मबन्ध के कारण होते हैं। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन
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