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________________ स्थान ५ उद्देशक १ २३ पारंचित प्रायश्चित्त के पाँच बोल - श्रमण निग्रंथ पाँच बोल वाले साधर्मिक साधुओं को दशवां पारंचित प्रायश्चित्त देता हुआ आचार और आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। . पारंचित दशवां प्रायश्चित्त है। इससे बड़ा कोई प्रायश्चित्त नहीं है। इसमें साधु को नियत काल के लिये दोष की शुद्धि पर्यन्त साधुलिङ्ग छोड़ कर गृहस्थ वेष में रहना पड़ता है। अर्थात् गृहस्थ का वेष पहन कर साधु मर्यादा का पालन करता हुआ गुरु महाराज से दिये हुए तप आदि का सेवन करता है। उसके बाद उसको फिर नई दीक्षा दी जाती है। १. साधु जिस गच्छ में रहता है। उसमें फूट डालने के लिये आपस में कलह उत्पन्न करता हो। २. साधु जिस गच्छ में रहता है। उसमें भेद पड़ जाय इस आशय से, परस्पर कलह उत्पन्न करने में तत्पर रहता हो। ___३. साधु आदि की हिंसा करना चाहता हो। ४. हिंसा के लिये प्रमत्तता आदि छिद्रों को देखता रहता हो। ५. बार बार असंयम के स्थान रूप सावध अनुष्ठान की पूछताछ करता रहता हो अथवा अंगुष्ठ, कुऽयम प्रश्न वगैरह का प्रयोग करता हो। __नोट - अंगुष्ठ प्रश्न विद्या विशेष है। जिसके द्वारा अंगूठे में देवता बुलाया जाता है। इसी प्रकार कूड्यम प्रश्न भी विद्या विशेष है। जिसके द्वारा दीवाल में देवता बुलाया जाता है। देवता के कहे अनुसार प्रश्नकर्ता को उत्तर दिया जाता है। विग्रह और अविग्रह के स्थान .. आयरियउवझायस्स णं गणंसि पंच वुग्गह द्वाणा पण्णत्ता तंजहा - आयरियउवझाए णं गणंसि आणं वा धारणं वा णो सम्मं पउंजित्ता भवइ, आयरियउवज्झाए णं गणंसि अहाराइणियाए किइकर्म णो सम्मं पउंजित्ता भवइ, आयरियउवज्झाए णं गणंसि जे सुयपज्जवजाए धारेंति ते काले काले णो सम्म अणुप्पवाइत्ता भवइ, आयरियउवज्झाए णं गणंसि गिलाणसेहवेयावच्चं णो सम्म अब्भुट्टित्ता भवइ, आयरियउवझाए णं गणंसि अणापुच्छियचारी यावि हवइ णो आपुच्छियचारी । आयरियउवझायस्सणंगणंसि पंच अवुग्गहट्ठाणा पण्णत्ता तंजहाआयरियउवण्झाए गं गणंसि आणं वा धारणं वा सम्मं पउंजित्ता भवइ, एवं अहारायणियाए सम्मं किइकम्मं पउंजित्ता भवइ, आयरियउवाए णं गणंसि जे सुयपज्जवजाए धारेंति ते काले काले सम्मं अणुष्पवाइत्ता भवइ, आयरियउवज्झाए णं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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