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________________ श्री स्थानांग सूत्र अर्थात् सम्भोग से पृथक् साधु मंडली से बाहर करता हुआ भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है यथा - जो अनाचरणीय कार्य का सेवन करता है । जो अनाचरणीय कार्य का सेवन करके उसकी आलोचना नहीं करता है । जो आलोचना करने पर गुरु से दिये हुए प्रायश्चित्त को उतारने के लिये तप आदि का सेवन नहीं करता है । जो गुरु से दिये हुए प्रायश्चित्त का सेवन प्रारम्भ करके भी उसका पूरी तरह से पालन नहीं करता है । स्थविर कल्पी साधुओं की विशुद्ध आहार मासकल्प आदि जो मर्यादाएं हैं उनका बारम्बार उल्लंघन करता है । यदि साथ वाले साधु ऐसा न करने के लिए कहें तो वह उत्तर देता है कि 'मैं तो ऐसा ही करूँगा । गुरु महाराज मेरा क्या कर लेंगे। नाराज होकर भी मेरा क्या कर सकते हैं ?' इन पांच प्रकार के साधुओं को विसम्भोगिक करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है। पांच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ साधर्मिक साधुओं को पाच प्रायश्चित्तदेता हुआ भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है यथा- जो साधु जिस गच्छ में रहता है उसमें फूट डालने के लिए आपस में कलह उत्पन्न करता हो । जो साधु जिस गण में रहता है उसमें फूट डालने के लिए परस्पर कलह उत्पन्न कराने का प्रयत्न करता हो । साधु आदि की हिंसा करना चाहता हो । साधु आदि की हिंसा के लिए उसकी प्रमत्तता आदि छिद्रों को देखता रहता हो । अंगुष्ठ विद्या, कुड्यम प्रश्न आदि का प्रयोग करता हो अथवा बारबार असंयम के स्थान रूप सावदय कार्य की पूछताछ करता रहता हो । उपरोक्त पांच साधुओं को पारश्चित प्रायश्चित्त देता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है । विवेचन- संभोगी साधुओं को अलग करने के पाँच बोल - पाँच बोल वाले स्वधर्मी संभोगी साधु को विसंभोगी अर्थात् संभोग से पृथक् (साधु मंडली) से बाहर करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता । २२ १. जो अकृत्य कार्य का सेवन करता है। २. जो अकृत्य सेवन कर उसकी आलोचना नहीं करता है। ३. जो आलोचना करने पर गुरु से दिये हुए प्रायश्चित्त को उतारने के लिये तप आदि का सेवन नहीं करता है। ४. गुरु से दिये हुए प्रायश्चित्त का सेवन प्रारम्भ करके भी पूरी तरह से उसका पालन नहीं करता है। ५. स्थविर कल्पी साधुओं के आचार में जो विशुद्ध आहार शय्यादि कल्पनीय हैं और मासकल्प आदि की जो मर्यादा है उसका अतिक्रमण करता है। यदि साथ वाले साधु उसे कहें कि तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये, ऐसा करने से गुरु महाराज तुम्हें गच्छ से बाहर कर देंगे तो उत्तर में वह उन्हें कहता है कि मैं तो ऐसा ही करूंगा। गुरु महाराज मेरा क्या कर लेंगे? नाराज होकर मेरा क्या कर सकते हैं? आदि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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