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________________ श्री स्थानांग सूत्र 0000000000000000000000000000 0000000000 ना। अपने में उसका प्रतीकार करने की अर्थात् बदला लेने की शक्ति होते हुए भी शान्तिपूर्वक उसको सहन कर लेना क्षान्तिक्षमणता कहलाती है। इस से आगामी भव में शुभ कर्मों का बन्ध होता है। ५. जितेन्द्रियता - अपनी पाँचों इन्द्रियों को वश में करने से आगामी भव में सुखकारी कर्म बंधते हैं। ६. अमायाविता - माया कपटाई को छोड़ कर सरल भाव रखना अमायावीपन है। इससे शुभ प्रकृति रूप कर्म का बन्ध होता है। ७. अपार्श्वस्थता - ज्ञान, दर्शन, चारित्र की विराधना करने वाला पार्श्वस्थ (पासत्था) कहलाता है । इसके दो भेद हैं- सर्व पार्श्वस्थ और देश पार्श्वस्थ । ३५२ (क) ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय की विराधना करने वाला सर्व पार्श्वस्थ है। (ख) बिना कारण ही १. शय्यातरपिण्ड २. अभिहृतपिण्ड ३. नित्यपिण्ड ४. नियतपिण्ड और ५. अग्रपिण्ड को भोगने वाला साधु देशपार्श्वस्थ कहलाता है। जिस मकान में साधु ठहरे हुए हों उस मकान का स्वामी शय्यातर कहलाता है। उसके घर से आहार पानी आदि लाना शय्यातरपिण्ड है । साधु के निमित्त से उनके सामने लाया हुआ आहार अभिहृतपिण्ड कहलाता है। एक घर से रोजाना गोचरी लाना नित्यपिण्ड कहलाता है। भिक्षा देने के लिए पहले से निकाला हुआ भोजन अग्रपिण्ड कहलाता है । 'मैं इतना आहार आदि आपको प्रतिदिन देता रहूँगा।' दाता के ऐसा कहने पर उसके घर से रोजाना उतना आहार आदि ले आना नियतपिण्ड कहलाता है। उपरोक्त पाँचों प्रकार का आहार ग्रहण करना साधु के लिए निषिद्ध है। इस प्रकार का आहार ग्रहण करने वाला साधु देशपार्श्वस्थ कहलाता है। ८. सुश्रामण्यता - मूलगुण और उत्तरगुण से सम्पन्न और पार्श्वस्थता (पासत्थापन) आदि दोषों से रहित संयम का पालन करने वाले साधु श्रमण कहलाते हैं। ऐसे निर्दोष श्रमणत्व से आगामी भव में सुखकारी भद्र कर्म बांधे जाते हैं। ९. प्रवचन वत्सलता - द्वादशांग रूप वाणी आगम या प्रवचन कहलाती है। उन प्रवचनों का धारक चतुर्विध संघ होता है। उसका हित करना वत्सलता कहलाती है। इस प्रकार प्रवचन की वत्सलता और प्रवचन के आधार भूत चतुर्विध संघ की वत्सलता करने से जीव आगामी भव में शुभ प्रकृति का ध करता है। १०. प्रवचन उद्भावनता द्वादशांग रूपी प्रवचन का वर्णवाद करना अर्थात् गुण कीर्तन करना प्रवचन उद्भावनता कहलाती है। उपरोक्त दस बातों से जीव आगामी भव में भद्रकारी, सुखकारी शुभ प्रकृति रूप कर्म का बन्ध करता है। अतः प्रत्येक प्राणी को इन बोलों की आराधना शुद्ध भाव से करनी चाहिए। Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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