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________________ स्थान १० ३५१ छोड़ कर सरलभाव रखना । ७. अपार्श्वस्थता - ज्ञान, दर्शन, चारित्र की विराधना न करना । ८. सुश्रामण्यता - साधु के मूलगुण और उत्तरगुणों का निर्दोष पालन करना । ९. प्रवचन वत्सलता - द्वादशाङ्गीरूप प्रवचन की वत्सलता और प्रवचन के आधारभूत साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध श्रीसंघ की वत्सलता करना । १०. प्रवचन उद्भावनता - द्वादशाङ्गी रूप प्रवचन का वर्णवाद करना अर्थात् गुण कीर्तन करना । आशंसाप्रयोग - इस लोक या परलोक में सुख आदि की इच्छा करना आशंसा प्रयोग कहलाता है। वह दस प्रकार का कहा गया है यथा - १. इहलोकाशंसा प्रयोग - तप संयम आदि के फल स्वरूप इस लोक में चक्रवर्ती आदि की ऋद्धि की इच्छा करना । २. परलोकाशंसा प्रयोग - तप संयम आदि के फल स्वरूप परलोक में देवेन्द्रादि के पद की इच्छा करना । ३. द्विधालोकाशंसा प्रयोग - इसलोक और परलोक दोनों में चक्रवर्ती और इन्द्रादि पद की इच्छा करना । ४. जीविताशंसाप्रयोग - सुख आने पर बहुत काल तक जीवित रहने की इच्छा करना । ५. मरणाशंसाप्रयोग - दुःख आने पर दुःखों से छुटकारा पाने के लिए शीघ्र मरने की इच्छा करना । ६. कामाशंसाप्रयोग - मनोज्ञ ० शब्द और मनोज्ञ रूप की प्राप्ति की इच्छा करना । ७. भोगाशंसाप्रयोग - मनोज्ञ गन्ध, मनोज्ञ रस और मनोज्ञ स्पर्श की प्राप्ति की इच्छा करना । ८. लाभाशंसाप्रयोग - तप संयम के फल स्वरूप यश कीर्ति आदि के लाभ की इच्छा करना । ९. पूजाआशंसाप्रयोग - पूजा प्रतिष्ठा की इच्छा करना । १०. सत्काराशंसाप्रयोग - आदर सत्कार की इच्छा करना । विवेचन - भद्र कर्म बाँधने के दस स्थान - आगामी काल में सुख देने वाले कर्म दस कारणों से बाँधे जाते हैं। यहाँ शुभ कर्म करने से श्रेष्ठ देवगति प्राप्त होती है। वहाँ से चवने के बाद मनुष्य भव में उत्तम कुल की प्राप्ति होती है और फिर मोक्ष सुख की प्राप्ति हो जाती है। वे दस कारण ये हैं - .. १. अनिदानता - मनुष्य भव में संयम तप आदि क्रियाओं के फलस्वरूप देवेन्द्रादि की ऋद्धि की इच्छा करना निदान (नियाणा) है। निदान करने से मोक्षफल दायक ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना रूपी लता (बेल) का विनाश हो जाता है। तपस्या आदि करके इस प्रकार का निदान न करने से आगामी भव में सुख देने वाले शुभ प्रकृति रूप कर्म बंधते हैं। २. दृष्टि सम्पन्नता - सम्यग्दृष्टि होना अर्थात् सच्चे देव, गुरु, और धर्म पर पूर्ण श्रद्धा होना। इससे भी आगामी भव के लिए शुभ कर्म बंधते हैं। ३. योग वाहिता - योग नाम है समाधि अर्थात् सांसारिक पदार्थों में उत्कण्ठा (राग) का न होना या शास्त्रों का विशेष पठन पाठन करना। इससे शुभ कर्मों का बन्ध होता है। ___४. क्षान्तिक्षमणता - दूसरे के द्वारा दिये गये परीषह, उपसर्ग आदि को समभाव पूर्वक सहन कर ० शब्द और रूप काम कहलाते हैं । गन्ध, रस और स्पर्श ये भोग कहलाते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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