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ये दोनों भेद भाव की अपेक्षा से हैं।
९. चरम - वर्तमान नारकी का भव समाप्त करने के पश्चात् जो जीव फिर नारकी का भव प्राप्त नहीं करेंगे वे चरम अर्थात् अन्तिम भव नारक कहलाते हैं।
१०. अचरम - वर्तमान नारकी के भव को समाप्त करके जो फिर भी नरक में उत्पन्न होवेंगे वे अचरम नारक कहलाते हैं।
ये दोनों भेद भी भाव की अपेक्षा से हैं क्योंकि चरम और अचरम ये दोनों पर्याय जीव के ही होते हैं । जिस प्रकार नारकी जीवों के ये दस भेद बतलाए गए हैं वैसे ही दस दस भेद चौवीस ही दण्डकों जीवों के होते हैं।
श्री स्थानांग सूत्र
भद्रं कर्म बांधने के स्थान, आशंसा प्रयोग दसहि ठाणेहिं जीवा आगमेसिभद्दत्ताए कम्मं पगरेंति तंजहा अणियाणयाए, दिट्ठिसंपण्णयाए, जोगवाहियत्ताए, खंतिखमणयाए, जिइंदियत्ताए, अमाइल्लयाए, अपासत्थयाए, सुसामण्णयाए, पवयणवच्छलयाए, पवयणउब्भावणयाए । दसविहे आसंसप्पओगे पण्णत्ते तंजहा - इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, दुहओलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामासंसप्पओगे, भोगासंसप्पओगे, लाभासंसप्पओगे, पूयासंसप्पओगे, सक्कारासंसप्पओगे ॥ १३४ ॥
कठिन शब्दार्थ - आगमेसिभद्दत्ताए आगामी काल में सुख देने वाले, अणियाणयाए अनिदानता, दिट्ठिसंपण्णयाए दृष्टि संपन्नता, जोगवाहियत्ताए - यंग वाहिता, खंति खमणयाए क्षान्ति क्षमणता, जिइंदियत्ताए जितेन्द्रियता, अमाइल्लयाए - अमायाविता, अपासत्थयाए- अपापूर्वस्थता, सुसामण्णयाए सुश्रामण्यता, पवयणवच्छलाएं प्रवचन वत्सलता, पवयण उब्भावणयाएप्रवचन उद्भावनता, आसंसप्पओगे - आशंसा प्रयोग ।
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भावार्थ- जीव आगामी काल में सुख देने वाले कर्म दस कारणों से बांधते हैं । यहाँ शुभकर्म करने से देवगति प्राप्त होती है । वहाँ से चवने के बाद मनुष्यभव में उत्तम कुल की प्राप्ति होती है और फिर मोक्ष सुख की प्राप्ति हो जाती है । वे दस कारण ये हैं - १. अनिदानता मनुष्यभव में संयम, तप आदि क्रियाओं के फल स्वरूप देवेन्द्र आदि की ऋद्धि की इच्छा न करना । २. दृष्टिसंपन्नता - सम्यगृद्दृष्टि होना अर्थात् सच्चे देव, गुरु, धर्म पर पूर्ण श्रद्धा होना । ३. योगवाहिता - सांसारिक पदार्थों में आसक्ति न होना या शास्त्रों का विशेष पठन पाठन करना । ४. क्षान्तिक्षमणता बदला लेने की शक्ति होते हुए भी दूसरे के द्वारा दिये हुए परीषह उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन कर लेना । ५. जितेन्द्रियता अपनी पांचों इन्द्रियों को वश में करना । ६. अमायाविता माया कपटाई को
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