SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१० 00 0000000000000000 का 'अनन्तक' ऐसा नाम देना २. स्थापना अनन्तक किसी पदार्थ में 'अनन्तक' की स्थापना करना ३. द्रव्य अनन्तक - जीव और पुद्गल में रहने वाली अनन्तता ४. गणना अनन्तक एक, दो, तीन, संख्यात, असंख्यात, अनन्त इस प्रकार केवल गिनती करना गणनानन्तक है ५. प्रदेश अनन्तक आकाश प्रदेशों की अनन्तता ६. एकतो अनन्तक - भूतकाल या भविष्य काल को एकतो अनन्तक कहते हैं क्योंकि भूत काल आदि की अपेक्षा अनन्त है और भविष्यत् काल समाप्ति की अपेक्षा अनन्त है ७. द्विधा अनन्तक जो प्रारम्भ और समाप्ति यानी आदि और अन्त दोनों अपेक्षाओं से अनन्त हो, जैसे काल ८. देश विस्तारानन्तक- जो नीचे और ऊपर यानी मोटाई की अपेक्षा अन्त वाला होने पर भी विस्तार की अपेक्षा अनन्त हो, जैसे आकाश का एक प्रतर । आकाश के एक प्रतर की मोटाई एक प्रदेश जितनी होती है इसलिए मोटाई की अपेक्षा उसका दोनों तरफ से अन्त है। लम्बाई और चौड़ाई की अपेक्षा वह अनन्त है, इसलिये देश अर्थात् एक तरफ से विस्तार अनन्तक है ९. सर्व विस्तार अनन्तक - जो लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई सभी की अपेक्षा अनन्त हो, जैसे आकाशास्तिकाय १०. शाश्वत अनन्तक - जिसका कभी आदि और अन्तन हो, जैसे जीव आदि द्रव्य । उत्पाद पूर्व की दस वस्तुएं यानी अध्याय कहे गये हैं । अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व की दस चूलिका वस्तुएं कही गई हैं। प्रतिसेवना - दोषों का सेवन करने से संयम की जो विराधना होती है उसे प्रतिसेवना कहते हैं, वह दस प्रकार की कही गई है यथा - १. दर्प प्रतिसेवना अहंकार से होने वाली संयम की विराधना । २. प्रमाद प्रतिसेवना - मदय, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा इन पांच प्रमादों के सेवन से होने वाली संयम की विराधना । ३. अनाभोग प्रतिसेवना - विस्मृति अनुपयोग से होने वाली संयम की विराधना । : ४. आतुर प्रतिसेवना किसी पीड़ा से व्याकुल होने पर की गई संयम की विराधना । ५. आपत्प्रतिसेवना- किसी आपत्ति के आने पर की गई संयम की विराधना । ६. शंकित प्रतिसेवना ग्रहण करने योग्य आहार आदि में भी किसी दोष की शंका हो जाने पर उसको ले लेना शंकित प्रतिसेवना है । ७. सहसाकार प्रतिसेवना पहले विचारे बिना अकस्मात् किसी दोष के लग जाने से होने वाली संयम की विराधना । ८. भय प्रतिसेवना भय से संयम की विराधना करना । ९. प्रद्वेष प्रतिसेवना - क्रोधादि कषाय करने से एवं किसी पर द्वेष या ईर्ष्या से संयम की विराधना करना । १०. विमर्श प्रतिसेवना शिष्य की परीक्षा आदि के लिए की गई संयम विराधना । I - Jain Education International श्री स्थानांग सूत्र 0000000000 - - - - आलोचना के दस दोष कहे गये हैं यथा - १. प्रसन्न होने पर गुरु महाराज थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे यह सोच कर उन्हें सेवा आदि से प्रसन्न करके फिर उनके पास दोषों की आलोचना करना । २. ये आचार्य दोषों का थोड़ा दण्ड देते हैं ऐसा अनुमान लगा कर फिर उनके पास दोषों की आलोचना करना । ३. दृष्ट - जिस दोष को आचार्य आदि ने देख लिया हो उसी की आलोचना करना । ४. बादर - सिर्फ बड़े बड़े अपराधों की आलोचना करना । ५. सूक्ष्म सिर्फ छोटे छोटे अपराधों की - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy