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स्थान १०
३०९
दव्याणंतए, गणणाणंतए, पएसाणंतए, एगओणंतए, दुहओणंतए, देसवित्थाराणंतए, सव्ववित्थाराणंतए,सासयाणंतए। उप्पायपुव्वस्स णं दस वत्थू पण्णत्ता । अस्थिणस्थिप्पवायपुव्यस्सणं दस चूलवत्थू पण्णत्ता ।
प्रतिसेवना दसविहा पडिसेवणा पण्णत्ता तंजहा -
दप्पपमायणाभोगे, आउरे आवईस य ।। संकिए सहसक्कारे, भयप्पओसा य वीमंसा ॥ १॥
आलोचना और प्रायश्चित्त दस आलोयणा दोसा पण्णत्ता तंजहा - __ आकंपइत्ताणुमाणइत्ता, जं दिटुं बायरं च सुहुमं वा ।
छण्णं सहाउलगं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी ॥ २॥ - दसहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहइ अत्तदोसमालोइत्तए तंजहा - जाइसंपण्णे, कुलसंपण्णे एवं जहा अट्ठठाणे जाव खंते दंते अमायी अपच्छाणुतावी । दसहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहइ आलोयणं पडिच्छित्तए तंजहा - आयारवं, अवहारवं, जाव अवायदंसी, पियधम्मे, दढधम्मे । दसविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते तंजहा - आलोयणारिहे जाव अणवट्ठप्पारिहे पारंचियारिहे॥१२३॥
कठिन शब्दार्थ- णामाणंतए- नाम अनन्तक, दुहओणंतए - द्विधा अनन्तक, देसवित्थाराणंतएदेश विस्तार अनन्तक; चूलवत्थू - चूलिका वस्तु, वीमंसा - विमर्श-परीक्षा, दप्प - दर्प, आउरे - आतुर, सहाउलगं - शब्दाजुल, अत्तदोसमालोइत्तए - अपने दोषों की आलोचना करने के लिये, अपच्छाणुतावी- अपश्चानुतापी।
भावार्थ - बादर वनस्पति कायिक जीवों के शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना दस सौ योजन की अर्थात् एक हजार योजन की कही कई है । जलचर तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना दस सौ योजन की अर्थात् एक हजार योजन की कही गई है । उरपरिसर्प स्थलचर तिर्यञ्च पन्चेन्द्रिय जीवों के शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना दस सौ योजन की अर्थात् एक हजार योजन की कही गई है । - तीसरे तीर्थंकर भगवान् श्री सम्भवनाथ स्वामी के मोक्ष जाने के पश्चात् दस लाख करोड़ सागरोपम बीतने पर चौथे तीर्थंकर भगवान् श्री अभिनन्दन स्वामी उत्पन्न हुए थे ।
दस प्रकार का अनन्तक कहा गया है यथा - १. नाम अनन्तक - सचेतन या अचेतन किसी वस्तु
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