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________________ स्थान १० ३११ आलोचना करना । ६. प्रछन्न - गुरु महाराज अच्छी तरह सुन न सकें इस तरह धीरे धीरे आलोचना करना। ७. शब्दाकुल-दूसरों को सुनाने के लिए जोर जोर से बोल कर आलोचना करना । ८. बहुजन - एक ही दोष की बहुत से गुरुओं के पास आलोचना करना। ९. अव्यक्त - किस दोष में कैसा प्रायश्चित्त दिया जाता है इस बात का जिसको पूरा ज्ञान नहीं है ऐसे अगीतार्थ के पास आलोचना करना। १०. तत्सेवी - जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसी दोष को सेवन करने वाले आचार्य के पास आलोचना करना । ये आलोचना के दस दोष हैं। __दस गुणों से युक्त अनगार-साधु अपने दोषों की आलोचना करने के योग्य होता है यथा - जाति सम्पन्न, कुल सम्पन्न, विनय सम्पन्न, ज्ञान सम्पन्न, दर्शन सम्पन्न, चारित्र सम्पन्न, क्षान्त - क्षमा वाला, दान्त-इन्द्रियों को वश में रखने वाला, अमायी - कपट रहित, अपश्चानुतापी-आलोचना लेने के बाद जो पश्चात्ताप न करे। मैंने आलोचना व्यर्थ ही की क्योंकि इस दोष का गुरु महाराज को पता ही नहीं था। ___दस गुणों से युक्त अनगार आलोचना देने के योग्य होता है यथा - आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, अपव्रीडक, प्रकुर्वक, अपरिस्रावी, निर्यापक, अपायदर्शी। इन आठ गुणों का खुलासा अर्थ आठवें ठाणे में दे दिया गया है । ९. प्रिय धर्मी - जिसे धर्म प्रिय हो १०. दृढ़ धर्मी, जो धर्म में दृढ़ हो। इन दस गुणों से युक्त अनगार आलोचना सुनने के योग्य होता है। ___ दस प्रकार का प्रायश्चित्त कहा गया है यथा - १. आलोचनार्ह - आलोचना के योग्य, २. प्रतिक्रमण के योग्य, ३. आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य, ४. विवेकार्ह - अशुद्ध आहार पानी आदि परिठवने योग्य, ५. कायोत्सर्ग के योग्य, ६. तप के योग्य, ७. दीक्षा पर्याय का छेद करने के योग्य ८. मूलाह अर्थात् फिर से महाव्रत लेने योग्य ९. अनवस्थाप्याह - तप के बाद दुबारा दीक्षा देने के योग्य। जब तक अमुक प्रकार का विशेष तप न करे उसे दीक्षा नहीं दी जा सकती है । तप के बाद दुबारा दीक्षा लेने पर ही जिस प्रायश्चित्त की शुद्धि हो । १०. पारांचिकाह - गच्छ से बाहर करने योग्य। जिस प्रायश्चित्त में साधु को संघ से बाहर निकाल दिया जाय । साध्वी या रानी आदि का शील भङ्ग करने पर यह प्रायश्चित्त दिया जाता है । यह प्रायश्चित्त महापराक्रम वाले आचार्य को ही दिया जाता है। इसकी शुद्धि के लिए छह महीने से लेकर बारह वर्ष तक गच्छ छोड़ कर जिनकल्पी की तरह कठोर तपस्या करनी पड़ती है । उपाध्याय के लिए नवमें प्रायश्चित्त तक का विधान है और सामान्य साधु के लिए आठवें प्रायश्चित्त तक का ही विधान है। जहां तक चौदह पूर्वधारी और पहले संहनन वाले होते हैं वहीं तक दसों प्रायश्चित्त रहते हैं । उनका विच्छेद होने के बाद मूलार्ह तक आठ ही प्रायश्चित्त होते हैं। . विवेचन - जिस वस्तु का संख्या आदि किसी प्रकार से अन्त न हो उसे अनन्तक कहते हैं। इसके दस भेद भावार्थ में बता दिये गये हैं। www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only Jain Education International
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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