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स्थान ५ उद्देशक १ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 कल्पिक यानी दिये जाने वाले द्रव्य से ही खरड़े हुए हाथ या भाजन आदि से दिया जाने वाला आहार ही जिसे कल्पता है । ये पांच भेद भी अभिग्रहधारी साधु के हैं । पांच स्थान भगवान् द्वारा उपदिष्ट यावत् अनुमत हैं । यथा - औपनिधिक यानी गृहस्थ के पास जो कुछ भी आहारादि रखा हुआ है उसी की गवेषणा करने वाला साधु । शुद्धैषणिक यानी शुद्ध एषणा द्वारा निर्दोष आहार की गवेषणा करने वाला साध । संख्यादत्तिक यानी दात की संख्या का परिमाण करके आहार पानी लेने वाला साध । दृष्टलाभिक यानी देखे हुए आहार की ही गवेषणा करने वाला साधु । पृष्टलाभिक यानी 'हे मुनिराज ! क्या मैं आपको आहार हूँ ?' इस प्रकार पूछने वाले दाता से ही आहार की गवेषणा करने वाला साधु।
पांच स्थान भगवान् द्वारा उपदिष्ट एवं अनुमत है यथा - आचाम्लिक यानी आयंबिल तप करने वाला साधु । निर्विकृतिक यानी घी आदि विगयों का त्याग करने वाला साधु । पुरिमट्ट यानी पहले दो पहर तक का पच्चक्खाण करने वाला साधु । परिमित पिण्डपातिक यानी द्रव्य आदि का परिमाण करके परिमित आहार करने वाला साधु । भिन्न पिण्डपातिक यानी पूरी वस्तु न लेकर टुकड़े की हुई वस्तु को ही लेने वाला साधु । पांच स्थान भगवान् द्वारा उपदिष्ट एवं अनुमत है यथा - अरसाहार यानी हींग आदि के बघार से रहित नीरस आहार करने वाला साधु । विरसाहार यानी रस रहित पुराने धान्य आदि का आहार करने वाला साध । अन्ताहार यानी भोजन के बाद अवशिष्ट रही हुई वस्तु का आहार करने 'वाला साधु । पन्ताहार यानी तुच्छ, हल्का या वासी आहार करने वाला साधु । रूक्षाहार यानी घी तैल
आदि से रहित नीरस - रूक्ष आहार करने वाला साधु । पांच स्थान भगवान् द्वारा उपदिष्ट एवं अनुमत है यथा - अरसजीवी यानी जीवन पर्यन्त अरस आहार करने वाला साधु । विरसजीवी यानी जीवन पर्यन्त विरस आहार करने वाला साधु, अन्तजीवी, प्रान्तजीवी रूक्षजीवी ।
पांच स्थान भगवान् द्वारा उपदिष्ट एवं अनुमत हैं. यथा - स्थानातिग यानी कायोत्सर्ग करने वाला साधु । उत्कटुकासनिक यानी उत्कटुक आसन से बैठने वाला साधु । प्रतिमास्थायी यानी एक रात्रिकी आदि पडिमा अङ्गीकार कर कायोत्सर्ग करने वाला साधु । वीरासनिक यानी वीरासन से बैठने वाला साधु । नैषदियक यानी निषदया अर्थात् आसन विशेष से बैठने वाला साधु । पांच स्थान भगवान् द्वारा उपदिष्ट एवं अनुमत है यथा - दण्डायतिक यानी दण्ड की तरह लम्बा होकर अर्थात् पैर फैला कर बैठने वाला साधु. । लगण्डशायी यानी बांकी लकड़ी की तरह कुबड़ा होकर मस्तक और कोहनी को जमीन पर लगाते हुए और पीठ से जमीन को स्पर्श न करते हुए सोने वाला. साधु । आतापक यानी शीत, ताप आदि को सहन करने रूप आतापना लेने वाला साधु । अप्रावृतक यानी वस्त्र न पहन कर शीतकाल में ठण्ड और गर्मी में धूप को सेवन करने वाला साधु । अकण्डूयक यानी शरीर में खुजली चलने पर भी न खुजलाने वाला साधु अकण्डूयक कहलाता है ।
विवेचन - भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पांच बोल - पाँच बोलों का भगवान्
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