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________________ १४ श्री स्थानांग सूत्र पडिमट्ठाई - प्रतिमा स्थायी, वीरासणिए - वीरासनिक, णेसज्जिए - नैषधिक, दंडाइए - दण्डायतिक, लगंडसाई - लगण्डशायी, अवाउडए - अप्रावृतक, अकंडूयए - अकण्डूयक .. ____भावार्थ - पांच कारणों से भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के चौबीस तीर्थङ्करों में से प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के साधुओं को तत्त्व समझाना मुश्किल होता है यथा - प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजुजड़ और अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु वक्रजड़ होते हैं इसलिए उनको तत्त्व समझाया जाना ही कठिन है । तत्त्वों के भेद प्रभेद समझना कठिन है । जीवाजीव को देखना कठिन है। परीषह उपसर्ग को सहन करना कठिन है। संयम का पालन करना कठिन है । पांच कारणों से बीच के बाईस तीर्थङ्करों के शिष्यों . को तत्त्व समझाना सरल होता है यथा - वे ऋजुप्राज्ञ होने के कारण उनको तत्त्व समझाना सरल है । भेद प्रभेद समझाना सरल है, जीवाजीवादि को देखना सरल है, परीषह उपसर्गों को सहन करना सरल है और संयम का पालन करना सरल है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए ये पांच स्थानों का सदा वर्णन किया है, सदा नाम द्वारा कीर्तन किया है, सदा स्पष्ट शब्दों में कथन किया है, सदा प्रशंसा की है, सदा आचरण करने की आज्ञा दी है वे पांच बातें ये हैं - क्षमा, मुक्ति यानी निर्लोभता, आर्जव यानी सरलता, मार्दव - मृदुता और लघुता यानी उपकरणों की अपेक्षा हल्का तथा तीन गारव का त्याग करने से हल्का । . श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पांच बातों की यावत् आज्ञा दी है यथासत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्य । पांच बातों की भगवान् ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए आज्ञा दी है यथा - उत्क्षिप्त चरक, गृहस्थ के अपने प्रयोजन से पकाने के बर्तन से बाहर निकाले हुए आहार की गवेषणा करने वाला साधु उत्क्षिप्त चरक है । निक्षिप्तचरक यानी पकाने के पात्र से बाहर न निकाले हुए अर्थात् उसी में रहे हुए आहार की गवेषणा करने वाला साधु निक्षिप्त चरक है । अन्तचरक यानी घर वालों के भोजन करने के पश्चात् बचे हुए आहार की गवेषणा करने वाला साधु अन्तचरक है। प्रान्तचरक यानी भोजन से अवशिष्ट वासी या तुच्छ आहार की गवेषणा करने वाला साधु प्रान्तचरक है। रूक्षचरक यानी रूखे स्नेह रहित आहार की गवेषणा करने वाला साधु रूक्षचरक कहलाता है । ये पांचों अभिग्रह धारी साधु के भेद हैं । इनमें पहले के दो भाव अभिग्रह हैं और शेष तीन द्रव्य अभिग्रह हैं। पांच स्थान भगवान् द्वारा उपदिष्ट यावत् अनुमत हैं यथा - अज्ञातचरक यानी परिचय रहित अज्ञातघरों से आहार की गवेषणा करने वाला साधु । अन्नग्लानक चरक यानी अभिग्रह विशेष से सुबह ही आहार करने वाला साधु अथवा अन्नग्लायक चरक यानी अन्न बिता भूख से ग्लान होकर आहार की गवेषणा करने वाला साधु अथवा अन्य ग्लायक चरक यानी दूसरे ग्लान साधु के लिए आहार की गवेषणा करने वाला साधु । मौनचरक यानी मौन व्रत पूर्वक आहार की गवेषणा करने वाला साधु । संसृष्टकल्पिक यानी खरड़े हुए हाथ या भाजन आदि से दिया जाने वाला आहार ही जिसे कल्पता है । तज्जातसंसृष्ट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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